दरअसल, हर अंतिम बिंदु के बाद ही
होती है इक नयी शुरुआत, फूलों
को हर हाल में है खिलना
उम्र से लम्बी नहीं
ये काली रात।
सांप और
सीढ़ियों का खेल छुपा है माथे की - -
इन लकीरों में, कल तक था
जो सरबराह - क़ायदा,
आज वही है
जकड़ा
हुआ बेरहम वक़्त की ज़ंजीरों में। न
कुछ है मेरे वश में, न तू ही है कोई
आख़री इन्साफ़ का प्राधिकार,
माना कि आज मेरी गर्दन
है तेरे आगे झुकी
हुई, लेकिन
ये भी
सच है कि तेरे सर पे लटक रही, इक
अदृश्य तलवार।
* *
- शांतनु सान्याल
होती है इक नयी शुरुआत, फूलों
को हर हाल में है खिलना
उम्र से लम्बी नहीं
ये काली रात।
सांप और
सीढ़ियों का खेल छुपा है माथे की - -
इन लकीरों में, कल तक था
जो सरबराह - क़ायदा,
आज वही है
जकड़ा
हुआ बेरहम वक़्त की ज़ंजीरों में। न
कुछ है मेरे वश में, न तू ही है कोई
आख़री इन्साफ़ का प्राधिकार,
माना कि आज मेरी गर्दन
है तेरे आगे झुकी
हुई, लेकिन
ये भी
सच है कि तेरे सर पे लटक रही, इक
अदृश्य तलवार।
* *
- शांतनु सान्याल
वाह
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय मित्र - - शुभ रात्रि।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 17 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद मान्यवर - - नमन सह।
हटाएंउपयोगी और सारगर्भित रचना।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद मान्यवर - - नमन सह।
हटाएंसच
जवाब देंहटाएंसुंदर।
असंख्य धन्यवाद मान्यवर - - नमन सह।
जवाब देंहटाएं