किस अदा से उसने भूख को
इक बिमारी में बदल
दिया, फिर एक
मौत का
कोई
दस्तावेज़ न रहा, मंदिर हो -
या मस्जिद यूँ ही उजड़ते
बसते रहे, जो उजड़
गए खिलने से
पहले उनका
कहीं
कोई उल्लेख न रहा। सिर्फ़
पोशाक के रंग बदल
गए, अंदर से वो
आज भी
बर्बर
से कम नहीं, हम आज भी
हैं अपने ही देश में एक
ख़ानाबदोश, वो
आज भी
किसी
विषाक्त तरुवर से कम -
नहीं, वही अंतहीन,
बेरंग है हमारी
ज़िन्दगी
का
सफ़र, हम जहाँ थे वहीँ -
रह गए खुले आसमां
के नीचे, न गाँव
कोई, न रहा
अपना
कोई रौशनी का शहर। - -
* *
- शांतनु सान्याल
इक बिमारी में बदल
दिया, फिर एक
मौत का
कोई
दस्तावेज़ न रहा, मंदिर हो -
या मस्जिद यूँ ही उजड़ते
बसते रहे, जो उजड़
गए खिलने से
पहले उनका
कहीं
कोई उल्लेख न रहा। सिर्फ़
पोशाक के रंग बदल
गए, अंदर से वो
आज भी
बर्बर
से कम नहीं, हम आज भी
हैं अपने ही देश में एक
ख़ानाबदोश, वो
आज भी
किसी
विषाक्त तरुवर से कम -
नहीं, वही अंतहीन,
बेरंग है हमारी
ज़िन्दगी
का
सफ़र, हम जहाँ थे वहीँ -
रह गए खुले आसमां
के नीचे, न गाँव
कोई, न रहा
अपना
कोई रौशनी का शहर। - -
* *
- शांतनु सान्याल
सुन्दर
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 25 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावों का सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
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