अशांत सागरों के जल समीर थे वो
जो मरू वक्षों में सिंचन करते
रहे, ख़ुद को उजाड़ कर
के, केवल देश हित
का चिंतन
करते
रहे। न जाने कहाँ गए वो लोग - -
जिन्होंने की थी समभाव की
परिकल्पना, नहीं देखा
था उन्होंने कभी
ऐसे मेरुदण्ड
विहीन
समाज का सपना। हर तरफ क्यों
आती है ज़ंजीर की आहट, क्यों
लोग लोग भूल चले हैं अब
ज़ुल्म के ख़िलाफ़ पुर -
ज़ोर सवाल
उठाना,
अब भी है हर तरफ़ गहरा अंधकार,
ये कैसा अदृश्य सम्मोहन है
हमारे आसपास, क्यों
भूल चले हैं लोग
हाथों में
नए सुबह के लिए मशाल उठाना।
* *
- - शांतनु सान्याल
जो मरू वक्षों में सिंचन करते
रहे, ख़ुद को उजाड़ कर
के, केवल देश हित
का चिंतन
करते
रहे। न जाने कहाँ गए वो लोग - -
जिन्होंने की थी समभाव की
परिकल्पना, नहीं देखा
था उन्होंने कभी
ऐसे मेरुदण्ड
विहीन
समाज का सपना। हर तरफ क्यों
आती है ज़ंजीर की आहट, क्यों
लोग लोग भूल चले हैं अब
ज़ुल्म के ख़िलाफ़ पुर -
ज़ोर सवाल
उठाना,
अब भी है हर तरफ़ गहरा अंधकार,
ये कैसा अदृश्य सम्मोहन है
हमारे आसपास, क्यों
भूल चले हैं लोग
हाथों में
नए सुबह के लिए मशाल उठाना।
* *
- - शांतनु सान्याल
न जाने कहाँ गए वो लोग - -
जवाब देंहटाएंजिन्होंने की थी समभाव की
परिकल्पना, नहीं देखा
था उन्होंने कभी
ऐसे मेरुदण्ड
विहीन
समाज का सपना।
बहुत सु न्दर ।
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र प्रोत्साहित करने के लिए - - नमन सह।
हटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र प्रोत्साहित करने के लिए - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट भाव
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र प्रोत्साहित करने के लिए - - नमन सह।
जवाब देंहटाएं