दरख़्वास्त, आख़िर हम करते भी
किन से, जिन्होंने लगाई थी
आग हमारी छतों पे
वही निगह्बां -
क़ानून
थे, वही रईस ए शहर भी, हमारी -
बस्ती का उजड़ना शायद तै
था, कौन करे यक़ीं सुबह
की ख़ुशगवारी का,
उनके हाथों
में क्या
नहीं, चाहें तो अमृत, चाहे तो ज़हर
भी। अँधेरे और उजाले में फ़र्क़
हमारे लिए बेमानी है, जो
हर लम्हा बदलते हों
खुद का ज़मीर,
कपड़ों की
तरह,
शायद उन्हें आईने से भी परेशानी
है। तमाम प्रतिध्वनियां यूँ
ही लौटती रहीं वादियों
से टकरा कर, हमने
चाहा था, उनके
भीतर तक
पहुंचना,
उनकी रूह को जगाना, ग़लत तो
न था आवाज़ देना ख़ुद को
बिसरा कर, तमाम
प्रतिध्वनियां यूँ
ही लौटती
रहीं
वादियों से टकरा कर, निरुत्तर -
और निःशब्द, कोहरे में
गुम - -
* *
- शांतनु सान्याल
किन से, जिन्होंने लगाई थी
आग हमारी छतों पे
वही निगह्बां -
क़ानून
थे, वही रईस ए शहर भी, हमारी -
बस्ती का उजड़ना शायद तै
था, कौन करे यक़ीं सुबह
की ख़ुशगवारी का,
उनके हाथों
में क्या
नहीं, चाहें तो अमृत, चाहे तो ज़हर
भी। अँधेरे और उजाले में फ़र्क़
हमारे लिए बेमानी है, जो
हर लम्हा बदलते हों
खुद का ज़मीर,
कपड़ों की
तरह,
शायद उन्हें आईने से भी परेशानी
है। तमाम प्रतिध्वनियां यूँ
ही लौटती रहीं वादियों
से टकरा कर, हमने
चाहा था, उनके
भीतर तक
पहुंचना,
उनकी रूह को जगाना, ग़लत तो
न था आवाज़ देना ख़ुद को
बिसरा कर, तमाम
प्रतिध्वनियां यूँ
ही लौटती
रहीं
वादियों से टकरा कर, निरुत्तर -
और निःशब्द, कोहरे में
गुम - -
* *
- शांतनु सान्याल
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 16 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंसार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
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