अनकही बातों के बेल मुंढेर तक
चढ़ न पाए, कहाँ खिलने से
लेकर ख़ुश्बुओं की बात
थी, दहलीज़ से
आगे उनके
पाँव, दो
क़दम भी बढ़ न पाए। ज़िन्दगी
का सलीब जितना भी भारी
क्यूँ न हो, हर हाल में
उसे उठाना होगा,
उनकी
मसीहाई का तिलिस्म दो वक़्त
की रोटी नहीं देगा, शापित
जिस्म को बारम्बार
जिलाना होगा।
कुछ तो
क़ुदरत का कहर, कुछ अपनों की
मेहरबानी, सीने में है इक
आतिशफिशां और
आँखों में मंज़िल
अनजानी।
* *
- शांतनु सान्याल
चढ़ न पाए, कहाँ खिलने से
लेकर ख़ुश्बुओं की बात
थी, दहलीज़ से
आगे उनके
पाँव, दो
क़दम भी बढ़ न पाए। ज़िन्दगी
का सलीब जितना भी भारी
क्यूँ न हो, हर हाल में
उसे उठाना होगा,
उनकी
मसीहाई का तिलिस्म दो वक़्त
की रोटी नहीं देगा, शापित
जिस्म को बारम्बार
जिलाना होगा।
कुछ तो
क़ुदरत का कहर, कुछ अपनों की
मेहरबानी, सीने में है इक
आतिशफिशां और
आँखों में मंज़िल
अनजानी।
* *
- शांतनु सान्याल
सुन्दर
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंसार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18 -8 -2020 ) को "बस एक मुठ्ठी आसमां "(चर्चा अंक-3797) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
आपका आभार आदरणीया कामिनी जी।
हटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंसार्थक और सटीक।
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
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