30 अगस्त, 2020

ज़िंदा रूह - -

हर एक मोड़ के फ़सील पे बैठे हुए
हैं लोग, लिए हाथ में अदृश्य
फंदा, गुज़रें भी तो किस
गली से हर तरफ
हैं छुपे हुए
फ़रेब
के ख़ूबसूरत जाल, अभी अभी उस
आश्रम का फीता काट गए हैं
विधायक जी, लिहाज़ा
चुप रहना ही है
बेहतर
बहरहाल। सुना है, गहराते रात में
आती हैं रुक रुक कर उस
आलिशान बंगले से
दर्द भरी चीखें,
शायद
कोई
ज़िंदा रूह भटकती है, हम ने भी -
पड़ोसी की तरह बंद कर ली हैं
खिड़कियां और किवाड़ें,
रूह हो या कोई
ज़िंदा इंसान,
अच्छा
नहीं कि किसी और के घर हम
झाँखें।

* *
- - शांतनु सान्याल

8 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (31अगस्त 2020) को 'राब्ता का ज़ाबता कहाँ हुआ निहाँ' (चर्चा अंक 3809) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव


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  2. गहराते रात में
    आती हैं रुक रुक कर उस
    आलिशान बंगले से
    दर्द भरी चीखें,
    शायद
    कोई
    ज़िंदा रूह भटकती है,
    बस यही तो बात हैपड़ोस की बातें बनाना ठीक है पर किसी कारुणिक आवाज पर वहां जाकर मदद करना गलत
    बहुत ही सुन्दर सृजन।

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