अपने अपने लंगर ज़मीं की ओर,
अंधकार बुलाता है हर शै को
हर हाल में अपनी ओर।
तुम्हारी चाँद रात
की बातें,
अक्सर मुझे ले जाती हैं दुनिया से
बहोत दूर, मैं इन स्वप्नमय
बातों से बहोत घबराता
हूँ, दरअसल
सीलन
भरे कमरों में ही उम्र गुज़र गई अब
हर एक ज़ख्म लगे है मुझे दिल
के क़रीब, बहोत मधुर।
किसे आवाज़ दें
यहाँ, हर
शख़्स है गोया स्वयं तक सिमटा हुआ,
लिहाज़ा चुप रहना ही लाज़िम
है, न कोई सम्बोधन, न
चेहरे में उसके उभरे
कोई हाव भाव,
बहोत
नज़दीक से वो आज गुज़रा कहने को
यूँ तो बरसों का मरासिम है।
ये शहर, ये घुमावदार
उड़ान पुल के
रास्ते,
सब थक हार के सो गए, सुबह ग़र - -
मुलाक़ात हो तो पिछले सलाम
का जवाब देना, सीढ़ियाँ
सिर्फ़ चढ़ने के लिए
नहीं बनती,
कभी
उतरते वक़्त हमें भी ज़रा याद रखना।
* *
- शांतनु सान्याल
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंलाजवाब सृजन।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
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