उस जुलूस में हम भी थे कभी
विजय ध्वज लिए हुए, ये
और बात है कि वक़्त
बदलते ही उसने
हमें प्रवासी
बना
दिया, न छत अपनी, न कोई
पता ठिकाना, यूँ तो कहने
को सारा देश है अपना,
अपने ही घर में
हमें अवैध
निवासी
बना दिया। न जाने कौन है
वो शख़्स, टी व्ही में कहीं
देखा है, न जाने क्या
कहता है, हमें तो
कुछ भी
नहीं
समझता है, कभी ज़मीं तो -
कभी अंतरिक्ष की बातें
करता है। हमें इस
पल की चिंता
से फ़ुरसत
नहीं
मिलती, वो दूरबीन से हमें -
ख़्वाबों के ताबीर दिखाना
चाहता है, कल तक
हम ज़िंदा रहें
या न रहें,
शायद,
इसलिए वो अपनी अपरिमेय
जागीर दिखाना चाहता
है।
* *
- - शांतनु सान्याल
विजय ध्वज लिए हुए, ये
और बात है कि वक़्त
बदलते ही उसने
हमें प्रवासी
बना
दिया, न छत अपनी, न कोई
पता ठिकाना, यूँ तो कहने
को सारा देश है अपना,
अपने ही घर में
हमें अवैध
निवासी
बना दिया। न जाने कौन है
वो शख़्स, टी व्ही में कहीं
देखा है, न जाने क्या
कहता है, हमें तो
कुछ भी
नहीं
समझता है, कभी ज़मीं तो -
कभी अंतरिक्ष की बातें
करता है। हमें इस
पल की चिंता
से फ़ुरसत
नहीं
मिलती, वो दूरबीन से हमें -
ख़्वाबों के ताबीर दिखाना
चाहता है, कल तक
हम ज़िंदा रहें
या न रहें,
शायद,
इसलिए वो अपनी अपरिमेय
जागीर दिखाना चाहता
है।
* *
- - शांतनु सान्याल
बहुत सु न्दर
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीय मित्र - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंवाह! सुंदर!!
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीय मित्र - - नमन सह।
जवाब देंहटाएं