इसी घाट पर मैंने उतार फेंकी है सभी
दांभिक आवरण, इन्हीं सीढ़ियों
से उतर कर मैंने देखा है
जल दर्पण, इसी
अश्वत्थ के
निचे
तुमने सर्वस्व किया था मुझे अर्पण ।
उन पलों में मैंने क्या पाया और
क्या कुछ खोया, अब कुछ
भी याद न रहा, निवृत
हैं तमाम चाहतें,
तुम्हें पा कर
जीवन
में अब कोई अवसाद न रहा। - - -
मुहाने की भूमि और समुद्र
का किनारा, लहरों के
मध्य कदाचित
झूलता रहा
मौन,
धुंधमय, अवर्णित प्रणय हमारा।
धुआं सा उठता रहा दोनों
किनारे, और मझधार
में रहे देह हमारे,
डूबते -
उभरते उन्हीं क्षणों में, अधिक - -
मुखर हुए नेह हमारे। इन्हीं
सीढ़ियों से चढ़ कर
सजल शरीर,
हमने
छुए देवालय के बंद कपाट, अब
पाप - पुण्य से मुक्त हैं सभी
मन की ग्रंथियाँ, दूर तक
रास्ता अब लगे
सीधा और
सपाट।
* *
- शांतनु सान्याल
दांभिक आवरण, इन्हीं सीढ़ियों
से उतर कर मैंने देखा है
जल दर्पण, इसी
अश्वत्थ के
निचे
तुमने सर्वस्व किया था मुझे अर्पण ।
उन पलों में मैंने क्या पाया और
क्या कुछ खोया, अब कुछ
भी याद न रहा, निवृत
हैं तमाम चाहतें,
तुम्हें पा कर
जीवन
में अब कोई अवसाद न रहा। - - -
मुहाने की भूमि और समुद्र
का किनारा, लहरों के
मध्य कदाचित
झूलता रहा
मौन,
धुंधमय, अवर्णित प्रणय हमारा।
धुआं सा उठता रहा दोनों
किनारे, और मझधार
में रहे देह हमारे,
डूबते -
उभरते उन्हीं क्षणों में, अधिक - -
मुखर हुए नेह हमारे। इन्हीं
सीढ़ियों से चढ़ कर
सजल शरीर,
हमने
छुए देवालय के बंद कपाट, अब
पाप - पुण्य से मुक्त हैं सभी
मन की ग्रंथियाँ, दूर तक
रास्ता अब लगे
सीधा और
सपाट।
* *
- शांतनु सान्याल
सुन्दर
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
जवाब देंहटाएं