20 अगस्त, 2020

पहचान की तलाश - -

तुमने जैसे चाहा वैसे ही लोगों ने पर्दे
पर दिखाया, तुमने जैसे चाहा वैसा
ही ताज़ा ख़बर आँखों के सामने
आया। ये और बात है कि
फाइलों में अब मैं -
ज़िंदा नहीं,
लोग
मुझे देख कर हैरां ज़रूर हैं, मैं आज
भी लिए फिरता हूँ अपनी
मौजूदगी का दलील,
वो आज भी मुझे
देख कर
परेशां
ज़रूर हैं। उनकी वादों का सितम तो
देखिये कि आईना भी पहचान ने
से कतराता है, इंतज़ार का
ये आलम है कि हम
ख़ुद से बेख़बर
हो चले,
इस शहर में अब हर गली, हर मोड़
पे ज़िन्दगी हमें मुंह चिढ़ाता है।
तुमने कहा था ब्रह्माण्ड
से आगे भी है एक
उज्जवल
संसार,
लाख चाहा लेकिन अंधेरों से हम -
निकल ही न पाए, अब तो
साँस लेना भी है यहाँ
दुश्वार। फिर भी
उम्मीद का
नशा
वजूद से उतरता है कहाँ, ये पोशीदा
ग़ुबार है ज़ख़्मी दिलों का साहब,
देखिए आख़िर ये पहुँचता
है कहाँ।

* *
- शांतनु सान्याल

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