उन निस्तब्ध क्षणों में जब मध्यरात्रि हो
मुखरित, निशिगंधा खोलें संवृत गंध
चक्र, और ईशान कोणीय मेघ
बरसे बूंद बूंद, उष्ण श्वास
के मरू प्रांतर तब हो
जाएँ अपने आप
सुरभित।
उन
अकृत्रिम क्षणों में जीवन चाहे शाश्वत - -
अनुबंधन, न नारी, न पुरुष, न
जन्म नहीं मृत्यु, न प्रेम न
कोई घृणा, न लौकिक
नहीं अलौकिक,
केवल
आलोक स्रोत में सुदूर द्वीपान्तर, - - -
परस्पर देह प्राण का सम्पूर्ण
विलयन, उन अकृत्रिम
क्षणों में जीवन
चाहे शाश्वत -
अनुबंधन।
* *
- - शांतनु सान्याल
मुखरित, निशिगंधा खोलें संवृत गंध
चक्र, और ईशान कोणीय मेघ
बरसे बूंद बूंद, उष्ण श्वास
के मरू प्रांतर तब हो
जाएँ अपने आप
सुरभित।
उन
अकृत्रिम क्षणों में जीवन चाहे शाश्वत - -
अनुबंधन, न नारी, न पुरुष, न
जन्म नहीं मृत्यु, न प्रेम न
कोई घृणा, न लौकिक
नहीं अलौकिक,
केवल
आलोक स्रोत में सुदूर द्वीपान्तर, - - -
परस्पर देह प्राण का सम्पूर्ण
विलयन, उन अकृत्रिम
क्षणों में जीवन
चाहे शाश्वत -
अनुबंधन।
* *
- - शांतनु सान्याल
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (30-08-2020) को "समय व्यतीत करने के लिए" (चर्चा अंक-3808) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
श्री गणेश चतुर्थी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सृजन ,सादर नमन आपको
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह ।
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