हर दौर में मरता है आम आदमी,
मीर ए कारवाँ चल देते हैं
बहारों के हमराह, पत्तों
की तरह बेमौसम
झरता है आम
आदमी ।
क़र्ज़
लेकर वो तो विदेशों में जा बसे
जो तरक़्क़ी का दम भरते थे,
ताउम्र भरपाई करता है
आम आदमी । मुझे
मालूम है तुम्हारे
अंदर का
चेहरा,
मरहम के भरम में सीने के ज़ख्म
भरता है आम आदमी, नई
सुबह की आस में हर
एक पल कड़ुए घूँट
निगलता है आम
आदमी ।
* *
- - शांतनु सान्याल
मीर ए कारवाँ चल देते हैं
बहारों के हमराह, पत्तों
की तरह बेमौसम
झरता है आम
आदमी ।
क़र्ज़
लेकर वो तो विदेशों में जा बसे
जो तरक़्क़ी का दम भरते थे,
ताउम्र भरपाई करता है
आम आदमी । मुझे
मालूम है तुम्हारे
अंदर का
चेहरा,
मरहम के भरम में सीने के ज़ख्म
भरता है आम आदमी, नई
सुबह की आस में हर
एक पल कड़ुए घूँट
निगलता है आम
आदमी ।
* *
- - शांतनु सान्याल
सुन्दर
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
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