है, यही वजह थी शायद सब
कुछ आधे अधूरे ही रहे,
तुम्हारे स्पर्श में
था कहीं
मालिन्य, या मेरी देह थी कोई
विस्मृत जीवाश्म, न तुम
बने पारस - मणि, न
मुझे ही मिला
कायांतरण,
सब कुछ था निरुद्देश्य चाहतों
का आरोहण। अरगनी की
तरह है मेरा वजूद,
रख दें जो भी
चाहें, मैंने
मूँद
लिए हैं अपनी आँखें, हाँ आईने
का ज़ामिन है बहुत मुश्किल,
वो आप जाने या आप
का ख़ुदा
जाने - -
* *
- - शांतनु सान्याल
वाह!
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंसु न्दर
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसार्थक और सुन्दर।
जवाब देंहटाएंदूसरे लोगों के ब्लॉग पर भी टिप्पणी किया करो।
जी, कोशिश कर रहा हूँ कि पढ़ पाऊं दूसरों की भी कृतियाँ और अपना मंतव्य रख सकूँ, असंख्य धन्यवाद के साथ।
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