जाने कहाँ से, उतरा है एक अजीब सा
अंधकार, पृथ्वी और आकाश के
मध्य है ख़ामोश संवाद,
परछाइयां यूँ तो
चल रही हैं
साथ साथ, फिर भी उसे नहीं जिस्म से
कोई सरोकार। नदी, पहाड़ और
विस्तीर्ण समुद्र का किनारा,
हर चीज़ है यथावत,
शब्दों के हरित
प्रदेश अब
सूख चले हैं, कुछ है बाक़ी तो वो है चिर
मौन हमारा। हर चेहरे में है जैसे
छुपा कौतुहल का फ़रेब,
हर कोई चाहता
है बनाना
केवल
ख़ुदग़र्ज़ सोपान, अगला दरवाज़ा हो या
दोस्त क़रीबी, वक़्त के आईने में
सभी अक्स हैं अभिन्न, एक
समान, हर कोई ठेल
कर छूना चाहे
अपने
हिस्से का आलोकित आसमान - - - - -
* *
- शांतनु सान्याल
अंधकार, पृथ्वी और आकाश के
मध्य है ख़ामोश संवाद,
परछाइयां यूँ तो
चल रही हैं
साथ साथ, फिर भी उसे नहीं जिस्म से
कोई सरोकार। नदी, पहाड़ और
विस्तीर्ण समुद्र का किनारा,
हर चीज़ है यथावत,
शब्दों के हरित
प्रदेश अब
सूख चले हैं, कुछ है बाक़ी तो वो है चिर
मौन हमारा। हर चेहरे में है जैसे
छुपा कौतुहल का फ़रेब,
हर कोई चाहता
है बनाना
केवल
ख़ुदग़र्ज़ सोपान, अगला दरवाज़ा हो या
दोस्त क़रीबी, वक़्त के आईने में
सभी अक्स हैं अभिन्न, एक
समान, हर कोई ठेल
कर छूना चाहे
अपने
हिस्से का आलोकित आसमान - - - - -
* *
- शांतनु सान्याल
समय-समय की बात रहती है। समय के साथ ये ख़ामोश संवाद दूर हो जाएगा
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
शुक्रिया आदरणीया कविता जी - - नमन सह।
हटाएंसु न्दर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएं