धूसर नदी, एकाकी नील कंठ,
और झूलती बरगद की
जटाएं, लौह सेतु
और दूरगामी
रेल, एक
मौन थरथराहट, दूर तक है एक
अजीब सा सन्नाटा, जाना भी
चाहें तो आख़िर कहाँ जाएं ।
नदी अपने सीने में न
जाने कितने राज़
लिए बहती है,
जीवन -
मरण की इतिवृत्त
वो निःशब्द
हमसे कहती है । नील कंठ
को है डूब कर फिर सतह
पे उभरना, आसानी से
कुछ भी नहीं यहां
हासिल, जीने
के लिए
ज़रूरी है अक्सर मौत के कुएं
में उतरना ।
**
- - शांतनु सान्याल
और झूलती बरगद की
जटाएं, लौह सेतु
और दूरगामी
रेल, एक
मौन थरथराहट, दूर तक है एक
अजीब सा सन्नाटा, जाना भी
चाहें तो आख़िर कहाँ जाएं ।
नदी अपने सीने में न
जाने कितने राज़
लिए बहती है,
जीवन -
मरण की इतिवृत्त
वो निःशब्द
हमसे कहती है । नील कंठ
को है डूब कर फिर सतह
पे उभरना, आसानी से
कुछ भी नहीं यहां
हासिल, जीने
के लिए
ज़रूरी है अक्सर मौत के कुएं
में उतरना ।
**
- - शांतनु सान्याल
सुन्दर
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 21 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआभार - - नमन सह।
हटाएंप्रकृति के सन्देश .
जवाब देंहटाएंआभार - - नमन सह।
हटाएंआभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर पंक्तियाँ।
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