मिलने को तेरे यूँ तो जां तड़पता है,
वही आँगन, वही नदी - पहाड़
का खेल, अब भी तुझे
छूने को जी मेरा
मचलता है,
वो
बारिश की बूंदे वक़्त के खपरैलों से
उतर कर, न जाने कब मेरी
उंगलियों के कोरों से
निकल कर ज़मीं
पे बिखर
गए,
सुदूर पहाड़ियों के वो साँझ बाती न
जाने किधर गए, कोलाहल में
भी रही, निरंतर एक
निभृत शून्यता,
हम जहाँ
गए
जिधर गए। स्मृतिओं का आखेट -
और प्रतिबिम्बों से लुकछुप,
जीवन भर चलता है,
कुछ पल होते
है बहुत
ही
ज़िद्दी, अनवरत रहते हैं साथ, फिर
न जाने क्यों, इन्हें खोने का
सदैव डर रहता है, खोने
पाने का सिलसिला
ताउम्र चलता
है।
* *
- - शांतनु सान्याल
वही आँगन, वही नदी - पहाड़
का खेल, अब भी तुझे
छूने को जी मेरा
मचलता है,
वो
बारिश की बूंदे वक़्त के खपरैलों से
उतर कर, न जाने कब मेरी
उंगलियों के कोरों से
निकल कर ज़मीं
पे बिखर
गए,
सुदूर पहाड़ियों के वो साँझ बाती न
जाने किधर गए, कोलाहल में
भी रही, निरंतर एक
निभृत शून्यता,
हम जहाँ
गए
जिधर गए। स्मृतिओं का आखेट -
और प्रतिबिम्बों से लुकछुप,
जीवन भर चलता है,
कुछ पल होते
है बहुत
ही
ज़िद्दी, अनवरत रहते हैं साथ, फिर
न जाने क्यों, इन्हें खोने का
सदैव डर रहता है, खोने
पाने का सिलसिला
ताउम्र चलता
है।
* *
- - शांतनु सान्याल