कई बार तुम्हारे दहलीज़ तक जा कर
लौट आता हूँ मैं, ख़ामोश, शब्दहीन,
इक नदी, जो बहती है हमारे दरमियां
सीने के अंदर, गहराई लिए अंतहीन,
तैरते हैं उसके ऊपर सघन मेघ छाया,
झिलमिल चाँद, आकाशगंगा रंगीन,
एहसास के स्रोतों में बहता है ब्रह्माण्ड,
लहराता है निशीथ का आंचल महीन,
इक सुरभित छुअन उतरती है रूह पार,
ज़िन्दगी लगती है, दिलकश, बेहतरीन,
समयचक्र के साथ बदलता रहा मौसम,
फिर भी, तुम आज भी हो बेहद हसीन,
* *
- - शांतनु सान्याल
02 नवंबर, 2022
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नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 03 नवंबर 2022 को 'समयचक्र के साथ बदलता रहा मौसम' (चर्चा अंक 4601) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार ।
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