25 मार्च, 2023

आत्म खोज 

ये अहम् ही है जो अदृश्य दूरियों की लकीरें
खींच जाता है हमारे मध्य, और
निष्क्रिय ध्रुव की तरह हम
अंतिम बिन्दुओं में
रुके से रह
जाते
हैं,
कभी इस ठहराव से बाहर निकल कर ज़रा
देखें, किसी की प्रसंसा में स्वयं को
केवल बुलबुला समझे, और
सुगंध की तरह बिखर
कर देखें, जीवन
इसी बिंदु पर
सार्थक सा
लगे है,
वो व्यक्ति जिसे लोग कहते थे  बहुत ही
प्रसिद्ध, नामवर न जाने क्या क्या,
समीप से लेकिन था वो बहुत
ही एकाकी, परित्यक्त
स्वयं  से हो जैसे,
यहाँ तक कि
पड़ौस भी
उसके
बारे में कोई कुछ नहीं जानता था, जब लोगों ने
देर तक द्वार खटखटाया, तब पता चला
कि उसे विदा हुए कई घंटे गुज़र
गए, नीरव सांसें, देह शिथिल,
आँखे छत तकती सी
निस्तेज, पास
पड़ी डायरी
में अपूर्ण
कविताओं की स्याही में ज़िन्दगी कुछ कह सी
गई, नीले आकाश की गहराइयों में, फिर
रौशनी का शहर साँझ ढलते सजने
लगा, कोई रुके या लौट जाये !
शून्य में झूलते तारक
अपने में हों जैसे
खोये, व्योम
अपना व्यापक शामियाना हर पल फैलाता चला,
कोई अपना आँचल ग़र फैला ही न सके
तो नियति का क्या दोष, आलोक
ने तो बिखरने की शपथ ली है,
कौन कितना अँधेरे से
मुक्त हो सका ये
तो अन्वेषण
की बात
है - - -

--- शांतनु सान्याल

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