29 दिसंबर, 2018

अंतर - गहन - -

पुरोहित की है अपनी बेबसी, शाम गहराते ही
बंद हो गए मंदिर के दरवाज़े, ख़ामोश
हैं सभी, पृथ्वी हो या आकाश,
सिर्फ़ अंतर गहन सारी
रात है जागे।
मरूस्वप्न सा है ये जीवन, या कल्पतरु से - -
लटके हुए असंख्य अभिलाष, कोहरे में
लिपटी हुई मेरी चाहत, निकलना
चाहे सुबह से कहीं आगे।
नवीन - पुरातन का
द्वंद्व
सनातन, जन्म - मृत्यु का अदृश्य पुनरावर्तन,
मोह - बंधन चाहे जितना तोड़ें, उतना
ही प्रियवर अपना लागे।  ख़ामोश
हैं सभी, पृथ्वी हो या आकाश,
सिर्फ़ अंतर - गहन सारी
रात है जागे।

* *
- शांतनु सान्याल

19 दिसंबर, 2018

तितलियों के हमराह - -

सफ़र ज़िन्दगी का नहीं - -
रुकता किसी के
लिए,
टिमटिमाते से दूर रह
जाते हैं छूटे हुए
स्टेशन,
एल्बम के पन्नों में कहीं,
दबी छुपी सी है वो
हंसी,
तितलियों के हमराह खो
जाते हैं सभी बचपन।
बंद दरवाज़े
के पार
मुंतज़िर नहीं अब कोई
दस्तक, तन्हाइयों
के झुरमुट में,
मैं हूँ
और मेरी धड़कन। वादियों
के सीने से, फिर उठ
चले हैं धुंध के
बादल,
न जाने आग है या बारिश,
ख़ामोश है क्यूँ दरपन।
तमाम रात
तलाशता
रहा
मजलिस ए आसमान, फिर
भी ढूंढ़ न पाए कोई
मेरा गुमशुदा
लड़कपन।

* *
- शांतनु सान्याल


10 दिसंबर, 2018

कटु सत्य है लेकिन - -

रात गहराते ही निशि पुष्पों ने
वृन्त छोड़ दिया, हवाओं
की मनःस्थिति
समझना
आसान नहीं, गंध चुरा के फूलों
का सुबह से नाता जोड़ दिया।
कोई नहीं रुकता किसी
के लिए ये कटु
सत्य है,
उगते ही सूरज के अंधेरों से - -
रिश्ता तोड़ दिया। जीवन -
मरण का आलेख,
अनवरत धुंध
भरा,
इसीलिए जीवन वक्र को सीधे
राह मोड़ दिया। अब चाहे
कोई, जो भी समझे
कुछ अंतर नहीं,
जो मन
को करे अशांत ऐसी चाहत छोड़ -
दिया।

* *
- शांतनु सान्याल 
 

28 नवंबर, 2018

सजल अभिलाष - -

उस निशीथ मौन के अंदर, बिखराव समेटे
मेरा मन, कच्ची मटकी तपने से पूर्व
जैसे देखे लाख सपन।  किसे ख़बर
कौन क्षितिज से उभरे बिहान
सतरंगी, ओस में डूबे हुए
हर पल मेरे चंचल
दिगंत - विहंगी।
कहीं कोई
फिर फूल खिले और सुरभित हो अंतरतम,
बुझे सभी आग्नेय अरण्य, मिले हर
एक साँस को जीने का वरदान 
कम से कम।

* *
- शांतनु सान्याल

  

21 नवंबर, 2018

प्रवासी मन - -

सूखते कांटेदार बेलों के बीच अभी तक हैं
बाक़ी कुछ गुलाबी मुस्कान, कोई
आए या न आए, हर चीज़ हो
जैसे यथावत, खिलता
हुआ अपने स्थान।
उम्मीद के
फूल
शायद कभी मुरझाते नहीं,चाहे पतझर हो
या मधुऋतु, क्या धूप और क्या छाँव,
गेरुआ मन हर पल एक समान।
जलविहीन फल्गु तट हो या
ज्वलंत मणिकर्णिका -
घाट, उन्मुक्त -
पाखी, सदा
प्रवासी,
प्राणों में बाँधे अंतहीन उड़ान। - - - - - - -

* *
- शांतनु सान्याल  

12 नवंबर, 2018

नज़्म जो निगाहों से छलके - -

मुस्कराहटों से जीवन के सभी व्यतिक्रम
छुपाए नहीं जाते, फिर भी ये सत्य है,
कि हर एक शख़्स कहीं न कहीं
अपने आप में गहराइयों
तक है उथला, कुछ
रिसते घाव
दिखाए
नहीं जाते। मेरी ख़ामोशी को उसने इक
नया आयाम ही दे दिया, बियाबां के
सीने में जैसे सुलगता कोई सावन,
तमाम ही दे दिया, ये ज़िन्दगी
की हैं ज़मीं, किसी अंतहीन
बंजर से कम नहीं, जज़्बा
ए दरख़्त इक बार
जो सूखे, दोबारा
किसी
हाल पे उगाये नहीं जाते। सुबह ओ शाम
के दरमियां कोई अनदेखा पुल ही था
शायद, जो सांसों को टूटने न दिया,
इस पार कौन था और उस पार
कौन, ये सोचना है बेमानी,
चाँद रात की ख़्वाहिश
 ने, शायद हमें
उनसे छूटने
न दिया,
इक अजीब सा कोहराम था रात भर मजलिस
ए आसमां पर, जो नज़्म मेरी निगाहों से
छलके वो फिर दोहराए नहीं जाते,
मुस्कराहटों से जीवन के
सभी व्यतिक्रम
छुपाए नहीं
जाते। 
* *
- शांतनु सान्याल  

01 नवंबर, 2018

ग़र कभी गुज़रो - -

अब पूछते हैं वो मेरा गुमशुदा
ठिकाना, जब याद नहीं
मुझको तारीख़ ए
रवाना।
वहीँ मोड़ पे कहीं हम सब कुछ
छोड़ आए, कोई याद हो
बाक़ी तो यूँ ही भूल
जाना।
उम्र की बदहाल सड़क ही तो - -
है ज़िन्दगी, कभी अपनों
ने लूटा, कभी बेदर्द
ज़माना।
सभी सब्ज़ दरख़्त सूख गए
अपने आप, दरअसल
बारिश तो था सिर्फ़
इक बहाना।
इस ज़मीं के सीने में सोतों - -
की कमी नहीं, मुश्किल
है लेकिन झरनों
को ढूंढ लाना।
हर कोई जैसे है अपने ही - - -
दायरे में गुम, आशना
चेहरा भी लगे यहाँ
अनजाना।

* *
- शांतनु सान्याल

30 अक्टूबर, 2018

बाक़ी अब कुछ भी नहीं - -

जो कुछ भी था उसमे में बाक़ी,
 ढलती रात ने ले लिया,
कुछ बूँद छुपाए
सीने में
आकाश तकता रहा ज़मीं को, -
मुसलसल सूनापन छोड़,
सभी कुछ बरसात
ने ले लिया।
अंतहीन कोई प्यास है वो, या  -
मेरी अनबुझ आरज़ू ! नफ़स
ख़्वाबों से छूटे मगर,
कुछ ख़्वाहिशात
ने ले लिया।
उम्र भर हम को न समझ आए
वो सभी राज़े तक़ाज़ा,
महसूल के बहाने
कुछ ज़ियादा
ही उसकी
ज़ात ने ले लिया। हम आज भी - -
उसी घाट पर हैं बैठे मुंतज़िर
निगाह लिए, जन्मों का
इम्तहान एक ही
पल में रूहे
निजात
ने ले लिया।  - -
* *
- शांतनु सान्याल
 


12 अक्टूबर, 2018

RAISE VOICE FOR # Me Too Movement

After observing continuously the campaign of # Me Too Movement, one thing became very clear that so-called the superhero of the era or the face of every advertisement is the great diplomate too - - no need to write the name, other politicians of present government who are claimed the torch bearer of beti bachao or save the daughter movement are also predators - - though particularly English news media are doing their work honestly - - anyways its a great beginning by Tanushree Dutta against the sexual predators of our society whom we are giving the status of god and saying the pride of humanity, days of Hippocrates, pseudo gentleness and so-called '' sanskari log'' are over, every citizen should raise their voice against these sexual predators of our society
who are just like woodworm making the Indian society day by day too much hollow and weak. Those people of Bollywood (who are against women's movement ) are actually hidden pimp, they want to earn the money after forcing the innocent women indirectly to flesh trade, there should be strict law and regulation for contract/employment for women's safety and protection, there shouldn't be any compromise of their dignity in the film industry / IT sectors/media / or any other organizations. If present government is really honest in their so-called women empowerment policy then they must show 56 inches chest for making immediately law and regulation regarding this comprehensive policy otherwise in coming election women shouldn't vote them.
- Shantanu Sanyal



11 अक्टूबर, 2018

दुआ - सलाम - -

मुखौटों का शहर है आरसी का
यहाँ कोई काम नहीं, परत
दर परत हैं न जाने
कितने ही छुपे
रंग - रोगन,
मौज
ए रौशनी का यहाँ कोई आख़री
मुकाम नहीं। फिर सज चले
हैं गली कूचों के सभी
बेरंग दरो दिवार,
लेकिन परदे
के ओट
में, खुशियों का कोई नाम नहीं।
वही बदहवास चेहरे तकते हैं
घिसी पिटी इश्तहारों को,
ईद हो या दिवाली
झुके कमर को
लेकिन
आराम नहीं। दहलीज़ में न जाने
कौन रंगीन दावतनामा छोड़
गया, कहने को वो शख़्स
अपना है लेकिन
दुआ - सलाम
नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल


19 सितंबर, 2018

जाने क्यों - -

सभी कुछ है सांस लेता हुआ मेरे आसपास,
फिर भी, न जाने क्यों रहता है ये दिल
उदास, वक़्त की सांप सीढ़ियों ने
मुझे, हर मोड़ पे, गिर कर
संभलना है सिखाया,
फिर भी न जाने
क्यों अभी
तक
हैं नाज़ुक मेरे एहसास। घर से मंदिर तक
का सफ़र, यूँ तो है बहोत ख़ुशगवार,
मुश्किल तो तब होती है, जब
मुख़ातिब हों उजड़े चेहरों
के नक़्क़ास। शहर
की भीड़ में
सिर्फ़
मैं ही न था तनहा, न जाने कितने लोग -
यूँ ही भटकते मिले अपने ही घरों के
आसपास। अजीब सा नशा है
उस अनदेखे वजूद का,
खो देते हैं दानिशवर
भी अक्सर,
अपने
होश वो हवास। फिर भी न जाने क्यों, ये
दिल रहता है उदास। 

* *
- शांतनु सान्याल

वो कौन थे - -

न जाने वो कौन थे अजेय पथिक,
गुज़रे अंतिम प्रहर, देह रंगाए
राख, छोड़ गए दूर तक
सुलगते पैरों के
निशान।
न जाने वो कौन थे, किस चाह में
जीवन को बनाया महाज्वाल -
स्तूप, और मुस्कुराते हुए
किया सर्वस्व दान।
काश, वो महा -
मानव
फिर लौट आएं, और सिखाएं हमें -
स्वाधीनता का सत्य अभिप्राय,
पुनः एक बार मानवता का
रचे हम, वास्तविक -
संविधान।

* *
- शांतनु सान्याल


 

07 सितंबर, 2018

किसी और दिन - -

कोई नहीं रुकता किसी के लिए,
ये ज़िन्दगी का सफ़र है कोई
ख़ूबसूरत ख़्वाब नहीं।
तहत तबादिल
से है तमाम
कारोबार
ए जहाँ, यहाँ कोई भी किसी -
का अहबाब नहीं। तुम्हारी
वाबस्तगी बेशक है
बहुत ही दिलकश
लेकिन तहे
दिल में
है क्या, मुझे इसका ज़रा भी -
अंदाज़ नहीं। चलो मान
भी लें कि हैं बहोत
गहरी तुम्हारी
निगाहें,
किसी और दिन डूब के देखेंगे
ज़रूर, लेकिन आज नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल 





04 सितंबर, 2018

इक मुश्त रौशनी - -

अहाते की धूप को यूँ ही
चुपके से आने दो,इक
मुश्त रौशनी है
काफ़ी दिल
ए नाशाद
के लिए,
किस
किस का रोना रोएं जिसे
जाना है उसे जाने दो।
हमें अपने बेरंग
दर ओ दीवार
से कोई
शिकायत नहीं, काग़ज़ी
फूलों को देख ग़र
कोई बहके तो
बहक जाने
दो।
ये आईना है बहोत ही - -
बेमुरव्वत, कोई
समझौता नहीं
करता,उनकी
मर्ज़ी,
नाज़ुक शीशमहल बारहा
चाहे सजाने दो। ताश
के घर ही तो  हैं
सभी, कोई
बादशाह
हो या
फ़क़ीर, ढहना तो है मुक़र्रर
 इक दिन, चाहे घर
जितना ऊंचा
बनाने दो।

* *
- शांतनु सान्याल


 

03 सितंबर, 2018

आलोक प्रवाह - -

एक तृषित मैं ही नहीं इस जग में,
हर एक चेहरे में है बसा कहीं
न कहीं एक मृग मरीचिका,
एक यायावर सिर्फ़ नहीं
मेरा मन, हर एक
मोड़ पर है
कोई न
कोई अनबूझ प्रहेलिका। उतार -
चढ़ाव की अपनी ही है एक
अलग अनुभूति, जीवन -
पथ कभी सरल रेखा
और कभी लगे
अपरिभाषित
तालिका।
कुछ फूल तुम्हारे नाम किए अर्पण,
कुछ गंध रहे जीवित मम हृदय
अभ्यंतरण, देह - प्राण
सब तुम्हारे नाम
फिर भी तुम
हो चिर -
अनामिका, अनंत प्रवाह में बहती -
हों जैसे असंख्य दीप मलिका।

* *
- शांतनु सान्याल

मुहाने के यात्री - -

जनशून्य तटभूमि, या अनावृत वक्षस्थल,
लहरों का आघात निरंतर, कुछ
बुझते जलते अदृश्य आग्नेय -
कण, कभी तुम्हारे मध्य
कभी मेरे अंदर।
जीवन के
रूप
या मुहाने पर समर्पित जलधार, कहीं
उभरते जुगनुओं के बहते द्वीप,
कहीं टूटते रिश्तों के कगार।
निशि पुष्प की तरह
कभी महकते
अनुरागी
पल,
और कभी नीरवता फैलाए अपना - -
अंचल।  फिर भी जीवन नदी बहे
निःशब्द अविरत,सांसों में
बांधे विस्तृत समुद्र -
सैकत।

* *
- शांतनु सान्याल

23 अगस्त, 2018

मुक्ति स्नान - -

सभी रंग थे फीके, सभी अक्स अधूरे,
उस छुअन में था न जाने कैसा
जादू, इक बार जो तन से
लगा, उम्र भर न मन
से छूटे। बग़ैर
लब  छुए
वो
हलक़ के पार हुआ, हाँ जान बूझ कर
ही मैंने विषपान किया। अब सभी
जीवन मरण के पैमाने लगे
बहोत हलके, निगाहों
में दूर तक सिर्फ़
उसी का
नूर है
झलके, मैंने अपने आप ही सभी दुःख -
दर्द का अवसान किया। न जाने
किसने कहा था कि मोक्ष
मिलता है नदियों के
किनारे, मैंने
अपने
भीतर जा कर बारहा मुक्ति स्नान किया।

* *
- शांतनु सान्याल

22 अगस्त, 2018

उम्र भर - -

कुछ एहसास होते हैं सोंधी ख़ुश्बू
की तरह मिटते नहीं उम्र भर,
अगरचे बारिश आती
जाती रही मौसमी
हवाओं के
साथ
 अक्सर, कुछ मोह सूत  होते हैं
अमरबेल की तरह, सिमटते
नहीं उम्र भर। कौन सा
अहद था जो दिल
से उतर कर
रूह तक
दख़ल
कर गया, इस मोम के दहन हैं - -
अनंत, ये हर हाल में पिघलते
नहीं उम्र भर। पिंजरे
की नियति में है
शून्यता,चाहे
मायावी
तंतु से कसो जितना, सीने के कुछ
अदृश्य अनल हैं चिरकालीन,
सुलगते नहीं उम्र भर।
इस जीवन
उत्सव
का,
अपना ही है अलग आलोकमय - - -
शामियाना, उभरते टूटते
तारों की रौशनी ग़र
खो जाएं तो
मिलते
नहीं
उम्र भर।

* *
- शांतनु सान्याल 




 

05 अगस्त, 2018

जाने कौन है वो - -

एक दिन अचानक गुलाब की -
तरह खिले बिहान ! हर
चेहरे पर हो ताज़गी
और जीने का
इत्मीनान।
एक
सुबह हो यूँ दुआओं वाली शबनम
से तरबतर, आईना छुपा ले
अपने सीने में झुर्रियों के
निशान। कौतूहल
मेरा फिर ढूंढ
लाए वो
 गुमशुदा लड़कपन, दरवाज़ा
खोलते ही नज़र आए
सपनों की दूकान।
दौड़ा ले जाए
मुझे,
फिर किसी फेरीवाले की पुकार,
ख़रीद लाऊँ कोई मीठा
अहसास,छोटे
मोटे सामान।
मीठी
झिड़कियां सुने हुए यूँ तो एक
उम्र गुज़र गई, वही मासूम
नादानियाँ फिर सर पे
उठाए आसमान।
इतनी भी
दूरी
ठीक नहीं ये सच है कि मशीन
 हैं सभी, किसी बहाने ही
सही ग़लत नहीं
रखनी जान
पहचान।
अगरचे वक़्त की बेरहमी ने - -
मुझे कहीं का न छोड़ा,
न जाने कौन है
जो अक्सर
मुश्किल
कर
जाए आसान।
* *
- शांतनु सान्याल 

04 अगस्त, 2018

मेरे घर का पता - -

लज्जित था दर्पण जब -
मुखौटे उतरने लगे,
उस महासभा
में थे
सभी मस्तक झुके हुए, -
घावों के निशान
जब देह से
यूँ उभरने
लगे।
दोहराते रहे मन्त्र, ''मातृ - -
रूपेण संस्थिता '' की,
नमस्तस्यै के
पूर्व, छद्म
पलस्तर उखड़ने लगे। - - -
रहस्य कूपों के जाल
 से हैं सभी आश्रय
स्थल, कहाँ
जाएं
लोग जब रक्षक ही निगलने
लगे। यूँ तो बात थी हर
एक चेहरे पे हंसी
लौटने की,
दांत
भी नहीं निकले और वो विष
उगलने लगे। तथाकथित
मानव तालिका में
नाम मेरा भी
हो, डर
सा
लगता है जब पड़ौसी बेवजह
घूरने लगे। मालूम है
अच्छी तरह
तुम्हारे
न आने की वजह, अब तो ख़ुद
हम भी अपने घर का पता
भूलने लगे।   

* *
- शांतनु सान्याल   
 

03 अगस्त, 2018

इस तरफ से - -

इस राजपथ से कभी,
पाँव बंधे ज़ंजीर
लिए गुज़रो
तो जाने,
हर
एक भीड़ में कहीं - - -
भटकती है
मेरी
ही
गुमशुदा परछाई, - - -
झुलसे हुए
चेहरों
की
ज़मीं पे, नंगे पाँव - -
कभी ठहरो तो
माने। न
जाने
कौन है जो अभिशाप
दे गया मेरे पुरसुकूं 
शहर को, कभी
इन वीरान
बस्तियों
के दरमियान हो के -
गुज़रो तो जाने।
एक मुद्दत
से आस
लगाए, लोग बैठे हैं -
खंडित घाट के
किनारे,
आसमानी कश्ती से,
अंधकारमय
गली
कूचों पे उतरो तो माने।

* *
- शांतनु सान्याल

27 जुलाई, 2018

विस्मृत संदूक - -

उभरते हैं यूँ कुछ अतीत के -
पृष्ठ दीर्घ निःश्वास से,
जीवन खोलता है
विस्मृत वृद्ध
संदूक
अपने आप से, सुप्त कहानियां,
डिंभक से कोष बने और
एक दिन पंख फैलाए
न जाने किस
ओर उड़
गए
मेरे पास से। गुल्लक मिट्टी का
था या शीशे का याद नहीं
मुझको, टूटा था वो
 बहुत पहले
किसी
शून्यता के अहसास से। ये - - 
अभिनंदन, फूलों के
सौगात कुछ
ग़ैर ज़रूरी
 से हैं,
यहीं कहीं था मैं, और वो सोचें
लौटा हूँ दीर्घ प्रवास से।

* *
- शांतनु सान्याल

09 जुलाई, 2018

उजाले का वहम - -

न बुझा यूँ चिराग़ ए अहसास
मेरा, कुछ उजाले का
वहम रहने दे, इस
शाहराह
से निकलते हैं न जाने कितने
धुंध भरे गली कूचे, कुछ
रौशनी के टुकड़े
अनजाने
ही सही, इस तरफ तो बहने दे।
 हाँ पहचानता हूँ अच्छी
तरह से मैं,  उन
नक़ाबपोशों
का फ़रेब,
जो भी हो अंजाम, उन अंधेरों
का दर्द खुल के आज मुझे
कहने दे। हर सिम्त
हैं ताजिर ए
ख़्वाब, हर तरफ है बिकने की
लाचारी, मेरे ज़ख़्म हैं नासूर,
लाइलाज, बहते हैं तो
यूँ ही इन्हें बहने
दे। जो अभी
अभी जलसा ए रहनुमा था
उसी ने ख़रीदा मुझे कई
बार, ज़ंजीर जड़े
पांवों का दर्द
ग़र मेरा
अपना है तो मुझे तनहा सहने दे।
न बुझा यूँ चिराग़ ए अहसास
मेरा, कुछ उजाले का
वहम रहने दे।

* *
- शांतनु सान्याल 



05 जुलाई, 2018

शाश्वत पथ - -

धूप - छाँव के उतरन पे, -
रफू करता ये जीवन,
साथ यवनिका
के जागृत
है रंगमंच अष्टप्रहर,मुखौटे
के दर्द में है छुपा, अट्टहास
प्रतिवेदन। नेपथ्य के
 रेशमी डोर,
नियति के हैं हाथ गढ़े, सुधार
कठिन है चाहे कर लो
जितना आवेदन।
सिद्धार्थ हो
या सुजाता कोई नहीं मोह - -
विहीन, एक ही है
शाश्वत पथ,
याचक
चले या महाजन।

* *
- शांतनु सान्याल


  

स्थिर बिंदु - -

जल भँवर हो जब तुम, मैं
एक पत्ता
टूटा
हुआ, अभी नदी का उतार 
है मुहाने की ओर
अविरल बहते
जाओ, शाम
ढले,
बेशक तुम्हें याद आएगा,
दूर किनारा छूटा हुआ।
निःसीम है मेरा
अधिकार,
तुम्हें
हर हाल में लौटा ले आएगा,
अपनी जगह है अचल
पाषाणी घाट, कहने
को यूँ ही रूठा
हुआ। 

* *
- शांतनु सान्याल


 

04 जुलाई, 2018

सृष्टि का सौंदर्य - -

बदस्तूर, सपनों का फेरीवाला, रात के आख़री
पहर, हमेशा की तरह, चाँदनी के फ़र्श पर,
खोलता है अपनी दुकान, और तुम्हारे
स्पर्श का तिलिस्म, धीरे - धीरे
देह को ले जाता है महाशून्य
की ओर, उन अंतरंग
क्षणों में कहीं -
जीवन
चाहता है अभ्यंतरीण मुक्ति, लेकिन कहाँ - -
इतना आसान है, मोहपाश से पूर्ण बाहर
निकलना, अभिलाषों के मायाजाल
में तब भटकते हैं श्वास तंतु !
फेरीवाला, गहराते रात
के साथ, और भी
क़रीब से 
आवाज़ देता है - - "अभी तो रात बहोत बाक़ी है,
अभी - अभी निशि पुष्पों ने खोला है गंध -
कोष, चाँदनी को और सुरभित होने
दो, जीवन के बंजर ज़मीन पर
कुछ बूँद शिशिर के गिरने
दो, सृष्टि का सौंदर्य
इसी में है, हर
हाल में
जीवन का नव अंकुरण होने दो, मुझे कुछ देर यूँ
ही शुभ्र प्रवाह में बहने दो।"

* *
- शांतनु सान्याल   

01 जुलाई, 2018

सर्वस्व - -

तुम एक दिन आए अनंत वृष्टि के साथ,
और बहा ले गए सब कुछ मेरा, ठीक
अप्रत्याशित मरू सैलाब की
तरह। अब कुछ है मेरे
अंदर, तो वो है इक
मृत नदी, रेत
और पत्थरों
से भरी,
दूर तक सूखे किनारों को अपने आलिंगन
में समेटे हुए, किसी अभिशापित टूटे
ख़्वाब की तरह। अदृश्य पंखों
की दुनिया बदल देती है
सब कुछ, यहाँ तक
की लोग भूला
देते हैं सभी
अंतरंग
चेहरे, हम खड़े रहते है अपनी जगह किसी
खोखले वृक्ष, बाओबाब की तरह। हाँ,
मैं आज भी चाहता हूँ अतीत  को
पुनः लौटा लाना, तुम्हारे
वही  अंतहीन वर्षा
वाली रात को
निःशब्द,
अपने
अंदर तक उतार लाना, सांसों के तटबंध - -
आज भी हैं तने हुए अपनी जगह,
किसी तामीर लाजवाब की
तरह।तुम एक दिन
आए अनंत
वृष्टि के
साथ, और बहा ले गए सब कुछ मेरा, ठीक
अप्रत्याशित मरू सैलाब की तरह।

* *
- शांतनु सान्याल



28 जून, 2018

अनजाना सुख - -

अपनी अपनी चाहत का है
अपना ही अलग पैमाना,
कोई सुख तो है ज़रूर,
मोती और सीप के
दरमियां,
उस बंद दरवाज़े का रहस्य,
चिरंतन हैं अनजाना।
मेघों का अस्तित्व,
नहीं मिटा
पाए वज्रों के हुंकार, बरसने
की ज़िद्द  में, दुश्वार था
उनका रुक जाना।
उस दिगंत
रेखा पर जा मिलते हैं - - - 
तिमिर -आलोक,
एक तीर
उठता
धुंआ, दूसरी ओर बेसुध है
ज़माना। पहेलियों का
शहर है, हर मोड़
से जुड़े मायावी
रस्ते, इस
मोह के
सफ़र से मुश्किल है दोस्त
लौट आना।
* *
- शांतनु सान्याल

25 जून, 2018

अंतराल - -

ज़िन्दगी में कहीं न कहीं, थोड़ा
बहुत अंतराल चाहिए,
नज़दीकियों के
अपने
अलग ही हैं कुछ नफ़ा नुक़सान,
फिर भी सर रखने के लिए
कोई कंधा हर हाल
चाहिए।
वजूद की असलियत कुछ और
थी, अक्स थे अर्थहीन,
जवाब हैं मुंतज़िर
लेकिन
कोई दमदार सवाल चाहिए। - -
उनकी बसीरत वो जाने,
हर चीज़ कहना
नहीं मुमकिन,
दुनिया
है फ़ानी तो रहे, दिल मगर - -
मालामाल चाहिए। चाँद
तारों को यूँ ही
आसमान
में रहने
दो अपनी जगह, दे सके रूह को
सुकूं ऐसा कोई ख़्वाब ओ
ख़्याल चाहिए। 

* *
- शांतनु सान्याल

 

16 जून, 2018

लौटने की मजबूरी - -

वो मिले मुद्दतों बाद कुछ इस तरह
कि आईना जैसे अपने पास
बुलाए मुझे, मौसमों
की  है अपनी
अलग
मजबूरी, फिर भी लौटतीं बहारें - -
जाते - जाते, बरगलाए मुझे।
उम्र, यूँ तो बीत गई ठीक
करते हुए रिश्तों के
नाज़ुक -
समीकरणों को, नियति भी किसी - -
अनबूझ ज्यामिति से कुछ
कम नहीं, हर क़दम,
अदृश्य रेखाओं
में उलझाए
मुझे।
अनगिनत ज़ख्मों को लिए सीने में,
उठ तो आए उनकी महफ़िल से
हम, न जाने कौन सा क़र्ज़
अभी तलक है बाक़ी,
रह - रह कर यूँ
ज़िन्दगी
अपने पास बुलाए मुझे।

* *
- शांतनु सान्याल


09 जून, 2018

ऐनक के इस पार - -

दूर तक वही बियाबां, वही अंतहीन शून्यता,
प्रतिध्वनियों का इंतज़ार अब बेमानी है,
जो कभी था चिड़ियों के कलरव 
से आबाद, वो गूलर का पेड़
अब किताबों की कहानी
है। कंक्रीट के जंगल
में उड़ान पुल के
सिवा कुछ
भी नहीं,
सभी रिश्तों के जिल्द हैं ख़ूबसूरत, लेकिन -
अंदर से महज मुँह ज़ुबानी है। कोई नहीं
पढ़ता दिल की किताब, शायद
आजकल, सभी को वक़्त
न मिलने की, बहुत
परेशानी है।
ऐनक के
उस  पार दुनिया अपनी जगह झिलमिलाती
सी नज़र आए, ऐनक के इस पार सिर्फ़
पानी ही पानी है।

* *
- शांतनु सान्याल  




 

30 मई, 2018

निःशब्द समझौता - -

काग़ज़ के फूलों की तरह कुछ आवेग
अपने आप झर जाते हैं, रह जाती
हैं अगर कुछ तो, वो है काँटों
के नोंक पर ठहरी हुई
एक बूँद की तरह
चाहत की
नमी,
कुछ नज़दीकियाँ मौन रह कर मुँह - 
चिढ़ाती हैं और धूसर स्मृति को
बेवजह साफ़ करती हैं, अब
कौन इन्हें समझाए कि
अलबम बदलने से
तस्वीर रंगीन
नहीं होते,
बस
एक मीठी टीस दे जाते हैं। तुम और
मैं आज भी उतने ही क़रीब हैं
जितने कि कभी हुआ
करते थे, पहले
शायद हम
एक
दूसरे की ज़रूरत थे या मजबूरियों के
तहत कोई मैत्री पुल, जो भी हो
उन्ही स्तम्भों के सहारे
हमने जीवन की
लम्बी यात्रा
की, और
आज
हमारे बीच छुपने छुपाने की कोई भी
वजह न रही, अब बिन संवाद ही
हम बन गए हैं पारदर्शी,
शायद यही है रूह से
रूह तक का एकल
रास्ता, जहाँ
से लौटना
नहीं
मुमकिन, अंतहीन सहयात्रा या कोई
सह मुक्ति अभियान का सूत्रपात,
जो भी हो अब हम बढ़  चले
हैं सुदूर धुंधभरी लेकिन
ख़ूबसूरत वादियों
की ओर - -

* *
- शांतनु सान्याल 

  

24 मई, 2018

कोई रहगुज़र नहीं - -

तलाश ए सुकूं थी उम्र से
कहीं ज़ियादा तवील,
तीर सीने के पार
कब हुआ
कुछ
भी ख़बर नहीं। दर्द ओ
मुस्कान के बीच थी
इक छुअन नादीद,
फ़रमान ए
हाक़िम
का
हम पे अब कोई असर
नहीं। खुले दिल
मिलें जहाँ
राजा

रंक दोस्तों की तरह, ये
जगह यूँ तो है बेहद
हसीं लेकिन मेरा
शहर नहीं।
तूफ़ान
 की
 है अपनी अलग ही
मजबूरियां शाम
से,रहने दें
अभी
तो है आधी रात आख़री
पहर नहीं। अब तुम
भी चाहो तो
आज़मा
लो 
ईमान हमारा, हर सिम्त
है धुंध और दूर तक
कोई रहगुज़र
नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल



 

08 मई, 2018

अनुबंध के तहत - -

हम जहाँ से चले थे वहां कोई सायादार -
दरख़्त न था, लिहाज़ा हमने मौसम
से निःशर्त अनुबंध कर लिया,
पतझर हो या मधुऋतु
अनुभूति का रहस्य
अपनी जगह,
हमने
अपनी साँसों में सदाबहार सुगंध भर लिया।
हमें मालूम है तपते राहों पर, नंगे पाँव
चलने का दर्द, अतः जीवन के
सभी धूसर कैनवासों को,
अपनी तरह से हमने
जलरंग कर
 लिया।
तुम्हारे दहलीज़ में शायद आज भी उतरते
हैं वही धूप - छाँव के स्वरलिपि, हालांकि
हमने अपनी भावनाओं को बहोत
पहले से ही बेरंग कर लिया।
वो ख़त जो तुम तक न
पहुँच पाए कभी,
दिल के
सन्दूक में हमने उन्हें तह करके रख दिया,
उम्र की सिलवटों को रोकना नहीं
आसान इसलिए मुस्कुराहटों
से हमने सभी कमज़ोर
तटबंध भर लिया।
अपनी साँसों
में सदाबहार सुगंध भर लिया। - - - - - - -

* *
- शांतनु सान्याल






02 मई, 2018

स्वप्न मंजरी - -

उन गहन अवशोषित क्षणों में तुम हो
कोअनाम गंध कोष, बिखरने को
चिर व्याकुल, उन उन्मुक्त पलों
में जीवन जैसे पुनर्जन्म को
हो आकुल। दिवा -
निशि के सेतु
पर झूले
सारी सृष्टि, कहीं बहे अविराम  मरू -
समीरण, कहीं झरे अंतहीन वृष्टि।
कुछ स्वप्न मंजरी मेरी आँखों
के, जाएँ तुम्हारे पलकों
के तीर, रात ढले ले
आएँ कुछ राहत
के नीर।

* *
- शांतनु सान्याल


01 मई, 2018

जीवन स्रोत - -

न जाने कौन कहाँ उतरे सभी तो हैं
एक ही कश्ती के मुसाफ़िर,
किसी घाट पर दीपमाला
बहे संग जलधार,
और किसी
तट पर
जा लगे सपनों का चन्द्रहार, कहीं से
निकले संकरी पगडण्डी और
पहुंचे किसी मीनाबाज़ार,
कहीं जीवन मूल्यों में
अपर्ण और कहीं
मूल्यों का
व्यापार,
न जाने कौन कहाँ से आ मिले इस -
पथ के मिलन बिंदु अनेक, कुछ
चाहें मिलना लहरों की तरह
निःशर्त, कुछ मिल कर
गुपचुप कर जाएँ
अंदरख़ाने
गर्त,
फिर भी जीवन स्रोत बहे अनवरत।
* *
- शांतनु सान्याल







26 अप्रैल, 2018

खेद विहीन - -

ये उम्र की ढलान कुछ और नहीं, प्रेमचंद की
'बूढ़ी काकी' ही तो है, शायद तुमने पढ़ी
हो अगर नहीं तो पढ़ लेना, यहीं
आसपास किसी नुक्कड़ -
गली के एक कोने
में अपना पता
तलाशती
हुई
एक परिचित चेहरा, हम में से कोई एक ही तो
है। असंख्य दस्तक, दरवाज़ों की अपनी
अलग बेरूख़ी, घिरते अंधकार में
ख़ुद ब ख़ुद ख़्वाहिशों का
आत्मदाह, बहुत
मुश्किल है
अब
तुम्हारे वरीयता सूची में ख़ुद को शामिल करना,
अतएव बेहतर इसी में है कि क्यों न ख़ुद
को करें कपूर की तरह विलीनता
की ओर अग्रसर, अंतहीन
दुआओं के साथ। 
तरलता की
नियति
है
बहना ऊंचाई से ढलान की ओर यथारीति - - -
खेद विहीन।
* *
- शांतनु सान्याल


24 अप्रैल, 2018

ख़ुश्बू की तरह - -

मैं आज भी हूँ मौजूद उसी मुहाने पर
जहाँ उफनती नदी मिलती है
सागर के बेचैन लहरों से,
मैं आज भी हूँ मौजूद
तुम्हारे नरम
हथेलियों
में
बंद जुगनू की तरह, मैं आज भी हूँ - -
मौजूद तुम्हारे अंदर नींबू फूलों
की मादक  महक लिए
हमेशा की तरह
बेपरवाह,
कुछ
बेतरतीब और बिखरा बिखरा सा, मैं
आज भी हूँ तुम्हारे सीने में कहीं,
परदे के ओट से झांकता
हुआ मासूम बच्चे की
मुस्कराहट की
तरह, कुछ
छुपा -
छुपा सा, कुछ आत्म प्रकाशक सा, जिसे
हो एक मुश्त तवज्जो की आरज़ू, मैं
आज भी हूँ मौजूद तुम्हारे आस
पास ये और बात है कि
तुम मुझे तलाशते
हो आईने के
फ्रेम में
कहीं,
जिसे उम्र के जंग ने न जाने कब से - -
धूसर कर दिया है।


* *
- शांतनु सान्याल






 

23 अप्रैल, 2018

कोई फ़र्क़ नहीं - -

कहाँ मिलती है मनचाही मुराद, कुछ न कुछ
उन्नीस बीस रह ही जाती है तामीर ए -
ख़्वाब में। जाना तो है हर एक
मुसाफ़िर को उसी जानी
पहचानी राह के बा -
सिम्त, जहाँ कोई
फ़र्क़ नहीं
होता
दुश्मन ओ अहबाब में। उसने बहुत कोशिशें -
की, लेकिन आईना साफ़ साफ़ मुकर
गया, सारी उम्र का निचोड़ था
उसके प्रतिबिंबित जवाब
में। शबनम को तो है
छलकना  हर
हाल में,
उसे ज़रा भी फ़र्क़ नहीं पड़ता कांटें और गुलाब
में।
* *
- शांतनु सान्याल


21 अप्रैल, 2018

न धुआं न राख़ अब हैं बाक़ी, फिर भी न जाने
अब तलक क्यूँ दिल है, कि सुलगता है रह
रह कर, वो आज भी है शामिल मेरी
साँसो से गुज़र कर, रूह तक
उतर कर। 

- शांतनु सान्याल

14 अप्रैल, 2018

नेपथ्य का रहस्य - -

खुल जाते हैं अपने आप सभी
अंतरतम दरवाज़े, जब
कभी ख़ुद को देखते
हैं आईने के
आर - पार। 
हमारी अपनी ही कृति है वो
मायावी चक्र -व्यूह,
जिसमें उलझने
को जीवन
चाहता है बारम्बार। ज्ञात है
सभी को अंधकारमय
नेपथ्य का रहस्य,
फिर भी
परछाइयों के पीछे दौड़ता है
ये संसार। नदी हमेशा
की तरह झेलती है
दीर्घ एकांतवास,
लोग लौट
जाते हैं अग्नि दे कर अपने
घर द्वार। नदी का यक्ष -
प्रश्न अपनी जगह है
दृढ़ स्थिर,
अनुत्तरित देवताओं को नहीं
 जैसे कोई सरोकार।
पुरोहित लौट
जाता है
स्वगृह  संध्या के पश्चात, जीवन
 - मरण के मध्य है तव लीला
अपरम्पार।

* *
- शांतनु सान्याल

10 अप्रैल, 2018

कांच के पोशाक - - SAVE THE GIRL CHILD

अँधेरे के उसपार हैं कुछ उजालों के
फ़रेब ख़ूबसूरत, ज़िन्दगी हर
क़दम पे मांगे है अपना
ही अलग जुर्माना,
कोई ख़्वाब
का है
सौदागर, रात गहराए फेंके चाँदनी के
छल्ले, कोहरे के रास्ते है, उसका
रोज़ आना जाना। कांच के
पोशाक में सजते हैं
आधी रात, 
मेरे
नाज़ुक अरमान, टूटते बिखरते यूँ ही -
गुज़रती है लहूलुहान ये रात, और
सुबह छीन लेती है हमेशा की
तरह कुछ बाक़ी मेरी
पहचान।

* *
- शांतनु सान्याल




 

08 अप्रैल, 2018

धूप - छाँव की बस्तियां - -

ख़्वाहिशात भी इक दिन बूढ़ा जाएंगे अपने
आप, न खींच इतना उम्र को रबर की
तरह, कुछ हाशिए के लोग भी
रखते हैं अहमियत अपनी
जगह, न देख यूँ मेरी
शख़्सियत को
भूले हुए
रहगुज़र की तरह। कब कौन किस मुकाम पे
मिल जाए अनाहूत देवदूत के रूप में,
कहना है बहोत मुश्किल, खुला
रहने दे दिल अपना, किसी
उन्मुक्त परिंदे के, 
अनंत सफ़र
की तरह,
ये धूप - छाँव की बस्तियां, मुखौटों से उतरते
नामवर हस्तियां, सभी एक दिन साहिल
से टकरा कर लौट जाएंगे, किसी
अनजान लहर की तरह, दूर
मझधार में कहीं उभरती
है जुगनुओं की बस्ती,
या मेरा वहम है
किसी गुम
रौशनी के शहर की तरह। न देख यूँ मेरी - -
शख़्सियत को भूले हुए रहगुज़र की
तरह।

* *
- शांतनु सान्याल
 



07 अप्रैल, 2018

रिक्त वक्षस्थल - -

दोनों किनारे हैं धूसर, दोनों तरफ रेत के समंदर,
ढलती उम्र की बस्ती है सूखे नदी के अंदर।
न जाने किस देश उड़ गए सभी बया -
पाखियों के झुण्ड, उदास से हैं
तटबंध के बबूल वन, सिर्फ़
झूलते हैं टहनियों के
नीचे कुछ शून्य
नीड़ पिंजर।
जीवन -
नदी की है अपनी ही अलग कहानी, कुछ मौन -
कथानक झुर्रियों में हैं क़लमबन्द, कुछ
सजल वृत्तांत पथराई आँखों की
जुबानी। ऋतुओं की तरह
हैं रिश्तों के बहाव,
कभी दोनों
किनारे
लहरों से बंधे, और कभी अंजुरी न पाए एक भी
बूँद पानी। जीवन नदी की है अपनी ही
अलग कहानी।

* *
- शांतनु सान्याल
 
 

04 अप्रैल, 2018

प्रतीक्षारत - -

मालूम है हमें दास्तां ए राहज़नी, फिर भी
सफ़र यूँ अधूरा कैसे छोड़ दें, अभी -
अभी तो उभरे हैं कुछ नूर की
बूंदे दिगंत के हमराह,
सुबह होने में है
अभी देर -
बहोत,
नाज़ुक सपनों को अभी से क्यूँ कर तोड़ दें।
झूठे लिबास, मुखौटों का इंद्रजाल,
रंग फ़रेबी, अंदर और बाहर
के दरमियां इक अँधा
कुआं, अँधेरा अभी
तक हैं घना
चाहो तो
सभी परतों को आईना जड़े अरगनी पे टांग
आओ, दूर दूर तक इक सुलगता हुआ
पलाश वन है या अग्निस्नान का
रास्ता, कहना बहोत कठिन
है, ग़र तुम हो सिक्का
ख़ालिस, देर न
करो नदी -
पहाड़, समुद्र सैकत, वृष्टि - मरुधरा, तमाम -
अपवादों को निर्वस्त्र लांघ आओ। अँधेरा
अभी तक हैं घना चाहो तो सभी
परतों को आईना जड़े
अरगनी पे टांग
आओ।

* *
- शांतनु सान्याल




02 अप्रैल, 2018

सच्चा रहनुमा - -

अंधकार उतरते हैं, हमेशा
की तरह निःशब्द,
नग्न दरख़्तों 
के बीच,
अपना रास्ता बनाते हुए।
उजालों का षड्यंत्र,
है अपनी जगह
स्थिर,
फेंकते हैं नयन पाशे, माथे
पे जुगनू सजाते हुए।
जीने की ललक
करती है
मजबूर मुझे बारहा, मज़ा
आता है जीती बाज़ी,
अक्सर हार
जाते हुए।
उन
चेहरों में जब होती है
नौनिहालों सी
चमक,
दुःख
नहीं होता है मुझे ज़ुल्मे
सलीब उठाते हुए।
कोई तो हो
इस
कारवां का रहनुमा ए - -
सादिक़, यूँ तो लूटा
 है न जाने
कितनों
ने, आते जाते हुए। - - - - -

* *
- शांतनु सान्याल

29 मार्च, 2018

सदियों का दर्द - -

वो सभी थे शामिल आधी
रात की साजिश में,
फूलों की ख़ुश्बू
हो या
चाँद का डूबना उभरना,
मोम की तरह ख़ाक
हुई रात, नींद
की
आज़माइश में। बुझते
चिराग़ों ने हमें
गिर के
संभलना है सिखाया, कुछ
रौशनी अक्सर रहती
है बाक़ी, जीने की
 गुंजाइश में।
तुम चाह
कर भी मिटा नहीं सकते
 इन्क़लाब ए जुनूं,
सदियों का दर्द
होता है भरा
इनकी
इक अदद पैदाइश में। - -

* *
- शांतनु सान्याल


22 मार्च, 2018

शेष पहर - -

बहुत दूर जहाँ नदी मुड़ जाती है अनजान
द्वीप की ओर, और किनारे खो जाते
हैं निविड़ अंधकार में, जीवन तब
खोजता है अपनी परछाइयां,
कुछ जीत में कुछ हार
में। धूप का धुआँ
ही था तुम्हारा
अपनापन,
दिल से उठा या देवालय से, तर्क है बेमानी,
मानों तो सब कुछ है यहाँ, और ग़र न
मानों तो कुछ भी नहीं इस संसार
में। जिन्हें उतरना था घाट पर
वो कब से उतर गए, शून्य
नौकाओं के सिवाय
अब कुछ भी
नहीं इस
पार में। ईशान कोण में फिर उभर चले हैं -
आवारा बादल, शेष पहर शायद बिखर
के बरसें, और सुबह हो जागृत
दोनों प्रणय कगार में। 
जीवन तब खोजता
है अपनी
परछाइयां, कुछ जीत में कुछ हार में। - -

* *
- शांतनु सान्याल

तितली या व्याध - पतंग - -

घेरे लगाए हुए वही विस्मित चेहरे और
डमरू की आवाज़, मदारी का वही
जादूभरा अंदाज़, व्यस्क घुटनों
से अंदर झांकता हुआ कोई
बच्चा उम्र से पहले
बुढ़ाता हुआ
देखता
है वही खोया हुआ सपनों का देश। वो -
कोई पारदर्शी - तितली है, या एक
ख़ूबसूरत, लेकिन ख़तरनाक
व्याध - पतंग, कहना
बहुत है मुश्किल,
निरीह शिशु
चाहता
है उसे क़रीब से छूना, महसूस करना।
सभी ख़ामोश हैं पोखर का मटमैला
पानी हो या, अधझुके,  ख़ज़ूर
पेड़ वाले गौरैयों के झुंड,
जंग लगे साइकिल
का रिंग आज
भी है वो
वहीँ एक कोने में पड़ा हुआ लावारिस।
कुछ भी ख़ास नहीं बदला मेरे गाँव
में, ये और बात है कि मेरी
उम्र साठ कब पार कर
गई मुझे कुछ
भी याद
नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल 

 

18 मार्च, 2018

कहीं और चलें - -

मायावी अंधकार अपनी जगह अगोचर, ये
ज़रूरी नहीं कि हर एक शरीर की अपनी
ही परछाई हो, महानगर सोया हुआ,
राजपथ ऊंघते हुए, ज़रूरी नहीं
कि सांसों के डूबने के लिए
अंतहीन गहराई हो।
आकाश से उठ
चले हैं, एक
के बाद एक, सभी रौशनी के जागीरदार - -
कांधे पर ज़रा रख लूँ, लहूलुहान वही
आख़री पहर का ख़्वाब, ख़ुदा -
करे मुझ पे भी, सुबह तक
तो कम अज़ कम,  
मसीहाई हो।
अब यूँ भी समेटने को कुछ भी नहीं है मेरे
पास, कुछ उजालों ने लूटा, कुछ अंधेरों
ने जज़्ब किया, चलो चलें हिसाब
किताब से बाहर निकल,
कहीं दूर जहाँ इक
पुरसुकूं  तन्हाई
हो - -

* *
- शांतनु सान्याल



 

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