सभी रंग थे फीके, सभी अक्स अधूरे,
उस छुअन में था न जाने कैसा
जादू, इक बार जो तन से
लगा, उम्र भर न मन
से छूटे। बग़ैर
लब छुए
वो
हलक़ के पार हुआ, हाँ जान बूझ कर
ही मैंने विषपान किया। अब सभी
जीवन मरण के पैमाने लगे
बहोत हलके, निगाहों
में दूर तक सिर्फ़
उसी का
नूर है
झलके, मैंने अपने आप ही सभी दुःख -
दर्द का अवसान किया। न जाने
किसने कहा था कि मोक्ष
मिलता है नदियों के
किनारे, मैंने
अपने
भीतर जा कर बारहा मुक्ति स्नान किया।
* *
- शांतनु सान्याल
उस छुअन में था न जाने कैसा
जादू, इक बार जो तन से
लगा, उम्र भर न मन
से छूटे। बग़ैर
लब छुए
वो
हलक़ के पार हुआ, हाँ जान बूझ कर
ही मैंने विषपान किया। अब सभी
जीवन मरण के पैमाने लगे
बहोत हलके, निगाहों
में दूर तक सिर्फ़
उसी का
नूर है
झलके, मैंने अपने आप ही सभी दुःख -
दर्द का अवसान किया। न जाने
किसने कहा था कि मोक्ष
मिलता है नदियों के
किनारे, मैंने
अपने
भीतर जा कर बारहा मुक्ति स्नान किया।
* *
- शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें