03 अगस्त, 2018

इस तरफ से - -

इस राजपथ से कभी,
पाँव बंधे ज़ंजीर
लिए गुज़रो
तो जाने,
हर
एक भीड़ में कहीं - - -
भटकती है
मेरी
ही
गुमशुदा परछाई, - - -
झुलसे हुए
चेहरों
की
ज़मीं पे, नंगे पाँव - -
कभी ठहरो तो
माने। न
जाने
कौन है जो अभिशाप
दे गया मेरे पुरसुकूं 
शहर को, कभी
इन वीरान
बस्तियों
के दरमियान हो के -
गुज़रो तो जाने।
एक मुद्दत
से आस
लगाए, लोग बैठे हैं -
खंडित घाट के
किनारे,
आसमानी कश्ती से,
अंधकारमय
गली
कूचों पे उतरो तो माने।

* *
- शांतनु सान्याल

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