उभरते हैं यूँ कुछ अतीत के -
पृष्ठ दीर्घ निःश्वास से,
जीवन खोलता है
विस्मृत वृद्ध
संदूक
अपने आप से, सुप्त कहानियां,
डिंभक से कोष बने और
एक दिन पंख फैलाए
न जाने किस
ओर उड़
गए
मेरे पास से। गुल्लक मिट्टी का
था या शीशे का याद नहीं
मुझको, टूटा था वो
बहुत पहले
किसी
शून्यता के अहसास से। ये - -
अभिनंदन, फूलों के
सौगात कुछ
ग़ैर ज़रूरी
से हैं,
यहीं कहीं था मैं, और वो सोचें
लौटा हूँ दीर्घ प्रवास से।
* *
- शांतनु सान्याल
पृष्ठ दीर्घ निःश्वास से,
जीवन खोलता है
विस्मृत वृद्ध
संदूक
अपने आप से, सुप्त कहानियां,
डिंभक से कोष बने और
एक दिन पंख फैलाए
न जाने किस
ओर उड़
गए
मेरे पास से। गुल्लक मिट्टी का
था या शीशे का याद नहीं
मुझको, टूटा था वो
बहुत पहले
किसी
शून्यता के अहसास से। ये - -
अभिनंदन, फूलों के
सौगात कुछ
ग़ैर ज़रूरी
से हैं,
यहीं कहीं था मैं, और वो सोचें
लौटा हूँ दीर्घ प्रवास से।
* *
- शांतनु सान्याल
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