19 दिसंबर, 2018

तितलियों के हमराह - -

सफ़र ज़िन्दगी का नहीं - -
रुकता किसी के
लिए,
टिमटिमाते से दूर रह
जाते हैं छूटे हुए
स्टेशन,
एल्बम के पन्नों में कहीं,
दबी छुपी सी है वो
हंसी,
तितलियों के हमराह खो
जाते हैं सभी बचपन।
बंद दरवाज़े
के पार
मुंतज़िर नहीं अब कोई
दस्तक, तन्हाइयों
के झुरमुट में,
मैं हूँ
और मेरी धड़कन। वादियों
के सीने से, फिर उठ
चले हैं धुंध के
बादल,
न जाने आग है या बारिश,
ख़ामोश है क्यूँ दरपन।
तमाम रात
तलाशता
रहा
मजलिस ए आसमान, फिर
भी ढूंढ़ न पाए कोई
मेरा गुमशुदा
लड़कपन।

* *
- शांतनु सान्याल


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past