29 दिसंबर, 2018

अंतर - गहन - -

पुरोहित की है अपनी बेबसी, शाम गहराते ही
बंद हो गए मंदिर के दरवाज़े, ख़ामोश
हैं सभी, पृथ्वी हो या आकाश,
सिर्फ़ अंतर गहन सारी
रात है जागे।
मरूस्वप्न सा है ये जीवन, या कल्पतरु से - -
लटके हुए असंख्य अभिलाष, कोहरे में
लिपटी हुई मेरी चाहत, निकलना
चाहे सुबह से कहीं आगे।
नवीन - पुरातन का
द्वंद्व
सनातन, जन्म - मृत्यु का अदृश्य पुनरावर्तन,
मोह - बंधन चाहे जितना तोड़ें, उतना
ही प्रियवर अपना लागे।  ख़ामोश
हैं सभी, पृथ्वी हो या आकाश,
सिर्फ़ अंतर - गहन सारी
रात है जागे।

* *
- शांतनु सान्याल

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