अंधकार उतरते हैं, हमेशा
की तरह निःशब्द,
नग्न दरख़्तों
के बीच,
अपना रास्ता बनाते हुए।
उजालों का षड्यंत्र,
है अपनी जगह
स्थिर,
फेंकते हैं नयन पाशे, माथे
पे जुगनू सजाते हुए।
जीने की ललक
करती है
मजबूर मुझे बारहा, मज़ा
आता है जीती बाज़ी,
अक्सर हार
जाते हुए।
उन
चेहरों में जब होती है
नौनिहालों सी
चमक,
दुःख
नहीं होता है मुझे ज़ुल्मे
सलीब उठाते हुए।
कोई तो हो
इस
कारवां का रहनुमा ए - -
सादिक़, यूँ तो लूटा
है न जाने
कितनों
ने, आते जाते हुए। - - - - -
* *
- शांतनु सान्याल
की तरह निःशब्द,
नग्न दरख़्तों
के बीच,
अपना रास्ता बनाते हुए।
उजालों का षड्यंत्र,
है अपनी जगह
स्थिर,
फेंकते हैं नयन पाशे, माथे
पे जुगनू सजाते हुए।
जीने की ललक
करती है
मजबूर मुझे बारहा, मज़ा
आता है जीती बाज़ी,
अक्सर हार
जाते हुए।
उन
चेहरों में जब होती है
नौनिहालों सी
चमक,
दुःख
नहीं होता है मुझे ज़ुल्मे
सलीब उठाते हुए।
कोई तो हो
इस
कारवां का रहनुमा ए - -
सादिक़, यूँ तो लूटा
है न जाने
कितनों
ने, आते जाते हुए। - - - - -
* *
- शांतनु सान्याल
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