उन गहन अवशोषित क्षणों में तुम हो
कोअनाम गंध कोष, बिखरने को
चिर व्याकुल, उन उन्मुक्त पलों
में जीवन जैसे पुनर्जन्म को
हो आकुल। दिवा -
निशि के सेतु
पर झूले
सारी सृष्टि, कहीं बहे अविराम मरू -
समीरण, कहीं झरे अंतहीन वृष्टि।
कुछ स्वप्न मंजरी मेरी आँखों
के, जाएँ तुम्हारे पलकों
के तीर, रात ढले ले
आएँ कुछ राहत
के नीर।
* *
- शांतनु सान्याल
कोअनाम गंध कोष, बिखरने को
चिर व्याकुल, उन उन्मुक्त पलों
में जीवन जैसे पुनर्जन्म को
हो आकुल। दिवा -
निशि के सेतु
पर झूले
सारी सृष्टि, कहीं बहे अविराम मरू -
समीरण, कहीं झरे अंतहीन वृष्टि।
कुछ स्वप्न मंजरी मेरी आँखों
के, जाएँ तुम्हारे पलकों
के तीर, रात ढले ले
आएँ कुछ राहत
के नीर।
* *
- शांतनु सान्याल
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