घेरे लगाए हुए वही विस्मित चेहरे और
डमरू की आवाज़, मदारी का वही
जादूभरा अंदाज़, व्यस्क घुटनों
से अंदर झांकता हुआ कोई
बच्चा उम्र से पहले
बुढ़ाता हुआ
देखता
है वही खोया हुआ सपनों का देश। वो -
कोई पारदर्शी - तितली है, या एक
ख़ूबसूरत, लेकिन ख़तरनाक
व्याध - पतंग, कहना
बहुत है मुश्किल,
निरीह शिशु
चाहता
है उसे क़रीब से छूना, महसूस करना।
सभी ख़ामोश हैं पोखर का मटमैला
पानी हो या, अधझुके, ख़ज़ूर
पेड़ वाले गौरैयों के झुंड,
जंग लगे साइकिल
का रिंग आज
भी है वो
वहीँ एक कोने में पड़ा हुआ लावारिस।
कुछ भी ख़ास नहीं बदला मेरे गाँव
में, ये और बात है कि मेरी
उम्र साठ कब पार कर
गई मुझे कुछ
भी याद
नहीं।
* *
- शांतनु सान्याल
डमरू की आवाज़, मदारी का वही
जादूभरा अंदाज़, व्यस्क घुटनों
से अंदर झांकता हुआ कोई
बच्चा उम्र से पहले
बुढ़ाता हुआ
देखता
है वही खोया हुआ सपनों का देश। वो -
कोई पारदर्शी - तितली है, या एक
ख़ूबसूरत, लेकिन ख़तरनाक
व्याध - पतंग, कहना
बहुत है मुश्किल,
निरीह शिशु
चाहता
है उसे क़रीब से छूना, महसूस करना।
सभी ख़ामोश हैं पोखर का मटमैला
पानी हो या, अधझुके, ख़ज़ूर
पेड़ वाले गौरैयों के झुंड,
जंग लगे साइकिल
का रिंग आज
भी है वो
वहीँ एक कोने में पड़ा हुआ लावारिस।
कुछ भी ख़ास नहीं बदला मेरे गाँव
में, ये और बात है कि मेरी
उम्र साठ कब पार कर
गई मुझे कुछ
भी याद
नहीं।
* *
- शांतनु सान्याल
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