फिर मुद्दतों बाद जी चाहता है कि पढ़ें
तुम्हारा वही आधा - अधूरा ख़त,
कुछ लजाए - सकुचाए से
अल्फ़ाज़, कुछ नाज़ -
अंदाज़ लिए भीगे
हुए जज़्बात -
अलमस्त।
मेहंदी की तरह कब हाथों से छूट गए
वो सभी मुहोब्बत के नक़्श ओ -
निगार, इक लम्बी सी रात
गुज़री हो जैसे अभी -
अभी, और
पथराई
आँखों में तैरते हों जैसे धुंधभरे ख़ुमार।
आईना देखना कैसे छोड़ दें हम,
कि ज़िन्दगी का सफ़र अभी
है बाक़ी, उन्हें हम से
लेना - देना कुछ
भी न हो
लेकिन हम आज भी हैं सिर्फ़ उन्हीं के
तलबगार।
* *
- शांतनु सान्याल
तुम्हारा वही आधा - अधूरा ख़त,
कुछ लजाए - सकुचाए से
अल्फ़ाज़, कुछ नाज़ -
अंदाज़ लिए भीगे
हुए जज़्बात -
अलमस्त।
मेहंदी की तरह कब हाथों से छूट गए
वो सभी मुहोब्बत के नक़्श ओ -
निगार, इक लम्बी सी रात
गुज़री हो जैसे अभी -
अभी, और
पथराई
आँखों में तैरते हों जैसे धुंधभरे ख़ुमार।
आईना देखना कैसे छोड़ दें हम,
कि ज़िन्दगी का सफ़र अभी
है बाक़ी, उन्हें हम से
लेना - देना कुछ
भी न हो
लेकिन हम आज भी हैं सिर्फ़ उन्हीं के
तलबगार।
* *
- शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें