आकाशरंगी लिफ़ाफ़े में हैं बंद, कुछ भीगे हुए 
दिन, गहन नींद से चुराए हुए कुछ मीठे 
सपन, सिक्त कामिनी फूलों के 
गंध, मैं चाह कर भी न 
लौटा पाऊंगा वो 
ख़ूबसूरत 
ऋण। 
समुद्र की विशालता है अपनी जगह लेकिन
दूरत्व रेखा खींच जाता है उसका अंतहीन 
खारापन, तुम्हारे सीने से उभरती है 
धुंधली सी इक नदी, सर्दियों 
में कोहरे से लबरेज़ 
भोर हो जैसे 
कोई,
मुझे शेष पर्यन्त तक बांधे रखता है तुम्हारा 
निःशब्द अपनापन, वो प्रेम है या स्पृहा,
शब्दकोश के पृष्ठों में नहीं मिलता 
है जिसका कोई पता, वो जो 
भी हो इस जीवन को 
होने नहीं देता 
है मलिन,
मैं चाह 
कर भी न लौटा पाऊंगा वो ख़ूबसूरत ऋण। 
* * 
- - शांतनु सान्याल 
06 अगस्त, 2021
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सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंखूबसूरत अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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