18 दिसंबर, 2024

अंदरुनी जयचंद - -

विलुप्त नदी के तलाश में मिले कुछ

परित्यक्त मंदिर के खंडहर, कुछ
टूटी हुई टेराकोटा की मूर्तियां,
पाटे हुए प्राचीन जल कूप,
जिस के आसपास
आबाद है यूँ तो
पत्थरों का
शहर,
विलुप्त नदी के तलाश में मिले कुछ
परित्यक्त मंदिर के खंडहर । बर्बर
आतताई आए, नगर लूटा, घर
जलाए, तलवार के बल से
धर्म बदला, मंदिरों को
तोड़ कर अपने
ईश्वर का घर
बनाया,
लेकिन पुरातन संस्कृति रही अपनी
जगह अजर अमर, विलुप्त नदी
के तलाश में मिले कुछ
परित्यक्त मंदिर के
खंडहर । आज
भी वही प्रथा
है जीवित
वही
क़त्ल ओर ग़ारत, आगज़नी, नारियों
पर अमानवीय अत्याचार, सामूहिक
रक्त पिपासा, वही पैशाचिक
वीभत्स अवतार, फिर भी
सीने पर शान्तिदूत का
तमगा लगाए फिरते
हैं, सामाजिक
समानता
की बात
करते हैं, चेहरे पर असत्य अमृत का
लेप, दिल में भरा रहता है ज़हर
ही ज़हर, विलुप्त नदी के
तलाश में मिले कुछ
परित्यक्त मंदिर
के खंडहर ।
आज भी
ज़िन्दा
हैं हज़ारों जयचंद हमारे अस्तित्व के
अंदर ।
- - शांतनु सान्याल

16 दिसंबर, 2024

छायामय - -

अथक, बस बहे जा रहे हैं,

दोनों किनारे चाहते हैं
हमें निगल जाना,
प्रस्तर खण्ड
से टकराते
हुए हमारा वजूद
लिख रहा है रेत पर कुछ नई
कहानियां, हटा रहे हैं हम
कुछ अज्ञात
पृष्ठभूमि
पर
नग्न सत्य की घनी परछाइयां,
अभिलाष का जल तरंग
अब भी बज रहा है
वक्षःस्थल के
गहन में,
शुभ्र
शंख के अंदर छुपा बैठा है
अभी तक जीवंत मोह
तिमिर सघन में,
उभर चले हैं
पुनः
अजस्र बुलबुले जीवन के
धरातल में, बुला रही हैं
हमें स्वप्नमयी अतल
की मायावी अथाह
गहराइयां, हटा
रहे हैं हम कुछ
अज्ञात
पृष्ठभूमि पर नग्न सत्य की
घनी परछाइयां ।
- - शांतनु सान्याल






13 दिसंबर, 2024

रूहानी अनुबंध - -

जी चाहता है बहुत दूर वादियों में

कहीं खो जाना,धुंध भरी राहों
में, बूँद बूँद मुक्कमल बिखर
जाना, तुम्हारी गर्म साँसों
की तपिश में है मंज़िल
ए निशां, इक रूहानी
अनुबंध में हों जैसे
शमअ ओ
परवाना,
डूबता
चला जा रहा है मेरा वजूद अथाह
गहराई में, उस हसीन ख़्वाब
से भला कौन चाहेगा लौट
आना, इस नशीली
एहसास में
ज़िन्दगी
को
क़रार तो मिले, कुछ पल और
ज़रा पास ठहरो फिर चाहे
लौट जाना, यूँही देख
कर बढ़ जाती है
जीने की
शिद्दत
ए तिश्नगी, मंज़िल दर मंज़िल खुल
जाते हैं, निगाह ए मयख़ाना,
जी चाहता है बहुत दूर
वादियों में कहीं
खो जाना ।
- - शांतनु सान्याल

25 नवंबर, 2024

नज़रअंदाज़ - -

पतझर के पत्तों की तरह झर जाते हैं सभी चाहत,

उम्र की गोधूलि में कोई भी साथ नहीं होता,
कुछ संभावनाएं रह जाती हैं शून्य
टहनियों में ज़रूर, जो ख़्वाबों
को मरने नहीं देती, ओस
बून्द की चाहत में
जागते हैं
अदृश्य
कोपल तमाम रात, सर्द रातों में उष्ण हथेलियों का
स्पर्श जीला जाता है सुबह तक, ज़िन्दगी हर
हाल में प्रतीक्षा करती है सूरज की प्रथम
किरण, खिलते हुए गुलाब की
पंखुड़ियों में कहीं रुकी
रहती है उम्मीद की
बून्द, आइने की
धूल हटाते
हुए हम
निहारते हैं अपना बिम्ब, चाहते हैं नई शुरूआत, - -
भूलना चाहते हैं उम्र का अंकगणित, अतीत
का हिसाब किताब, पाने खोने के खेल,
जटिल रिश्तों के भूल भुलैया, हम
जीना चाहते हैं सरल रेखा
की तरह अंतहीन, ये
और बात है कि
हम सफल
हो पाते
भी हैं
या नहीं, फिर भी हम मुस्कुराते हुए क़ुबूल करते हैं
वर्तमान को यथावत, दरअसल हर चीज़ के
लिए विकल्प मिलना आसान नहीं, इसी
एक बिन्दु पर आ कर हम मध्यम पथ
का करते हैं अनुसरण, दिल के
दरख़्त में सजाते हैं नाज़ुक
पत्तियां, देह की
शाखाओं
को कर
जाते
हैं जान बूझकर नज़रअंदाज़ - -
- - शांतनु सान्याल

24 नवंबर, 2024

कुछ पलों की चाहत - -

 कुछ देर काश और ठहरते, कुछ गिरह ए ताल्लुक़ात

ज़रा और भी खुलते, दूर तक बहते बहते कहीं
किसी मोड़ पर दो स्रोत अंदर तक एक दूजे
से मुक्कमल जा मिलते, कुछ देर काश
और ठहरते । प्रकाश स्तम्भ और
लहरों के मध्य एक मौन संधि
ज़रूरी है, कितना
कुछ क्यूं न हो
हासिल
इस
मुख़्तसर ज़िन्दगी में, मुहोब्बत के बग़ैर हर चीज़
अधूरी है, काश कुछ और उम्र की मियाद बढ़
जाए, हम बारहा तुम पर ही मरते, तुम्हारे
इश्क़ में जां से हज़ार बार गुज़रते,
कुछ देर काश और ठहरते ।
साहिल की अदृश्य
इबारतें उभरती
हैं दिगंत के
सप्त
रंगों में, गूँजती हैं प्रतिध्वनियां सुदूर माया मृदंगों
में, ये और बात है कि हम रहें न रहें फिर भी
हमारी दास्तां रहेगी मौसमी उमंगों में,
काश कुछ दूर और ज़िन्दगी के
सफ़र में एक संग निकलते,
चाँदनी रात में कुछ और
निखरते, कुछ और
भी महकते,
कुछ देर काश और ठहरते - - -
- - शांतनु सान्याल







ख़्वाब दर ख़्वाब - -

ख़्वाब दर ख़्वाब ज़िन्दगी तलाशती है

नई मंज़िलों का ठिकाना, वो
तमाम खोल जो वक़्त
के थपेड़ों ने उतारे,
उन्हीं उतरनों
को देख,
चाहता हूँ ख़ुद को यूँ ही भूल जाना,
कुछ पल जो पत्तों के नोक
पर थे ओस बून्द की
तरह अस्थिर,
रात ढले
पिघले
हुए मोम पर बिखरा पड़ा था इश्क़ ए
ख़ज़ाना, न जाने कौन सूंघ गया
सारे शहर को दूर तक है
अंतहीन ख़ामोशी,
किसे आवाज़
दें कौन
भला
समझेगा दिल का नज़राना, हर किसी
को चाहिए जिस्म ओ जां की
दुनिया, निरंतर लेन देन,
मुश्किल है उन्हें रूह
से रुबरु
मिलवाना ।
- - शांतनु सान्याल

23 नवंबर, 2024

विस्मृत दस्तक


रात के तमाम पर्दे क्रमशः उठे और गिर गए,
आकाश समेट गया नीला आलोकित
शामियाना, सुदूर कोहरे में खड़ी
है लाजवंती सुबह, कुछ पल
की नीरवता, पुनः जीवन
का है मैराथन, अलिंद
के देह को छूती
हुई ऊपर
उठ
चली है मोर्निंग ग्लोरी की नाज़ुक बेल, हाथों
में अख़बार लिए उसे निर्मिनेष तकना
है एक सुखद एहसास, जैसे कोई
मासूम बच्चा रैलिंग के मध्य
से देखना चाहे उड़ते
हुए कबूतरों का
समूह, कुछ
भटकी
हुईं
पीली तितलियां, कुछ विस्मृत दस्तकों के शब्द
तलाश करते हैं तुम्हारा बिम्ब, सीने के अथाह
गहराई में, शीर्षक के सिवाय कुछ पढ़ने
की अब ख़्वाहिश नहीं होती ।
* *
- शांतनु सान्याल

22 नवंबर, 2024

रेशमी नज़दीकियां - -

कोहरे में डूबे हुए हैं दूर तक फूलों की घाटियां,
एक हलकी सी सरसराहट अभी तक है 
ज़िन्दा हमारे दरमियाँ, कोई ख़्वाब
या अधूरी जन्म जन्मांतर की
प्यास, देह को लपटे हुए
हैं जैसे ख़्वाहिशों के
अमरबेल, जीवंत
हैं अभी तक
महकी
हुईं
चाँदनी रात में मुहोब्बत की परछाइयां, एक 
हलकी सी सरसराहट अभी तक है ज़िन्दा 
हमारे दरमियाँ । पारदर्शी खिड़कियों
के धरातल पर जमें हुए से हैं
उष्ण साँसों के वाष्प, या
जी उठे हैं गुज़रे हुए
मील के पत्थर,
शीशे के
सीने
पर
फिर तुमने उकेरा है मेरा नाम, सर्द रातों में -
अधर तले, पुनः जाग उठे हों जैसे बिंदु
बिंदु मधुमास, कश्मीरी शाल में गुथे
हुए हैं देह गंध के मीठे एहसास,
जीवित हो चले हैं फिर एक
बार रेशमी नज़दीकियां,
एक हलकी सी 
सरसराहट 
अभी 
तक है ज़िन्दा हमारे दरमियाँ - -
- - शांतनु सान्याल 



30 अक्टूबर, 2024

मृगजल - -

गुमशुदा ठिकाना खोजता है कोई

आदिम सितारा, मृगजल भर
कर नयन ढूंढते हैं,
लुप्तप्राय
किनारा,
जी
उठे हैं सभी ख़्वाहिशें जीवाश्म
के देह से बाहर, सुना है
आज रात आसमान
से बरसेगी
अमृतधारा,
अक्सर
मुड़ के देखा किया, कोई न था
हद ए नज़र, बंद खिड़कियां
दरवाज़े फिर किस ने
नाम है पुकारा,
ख़ुश वहम
ही सही,
जो
ज़िंदगी को खिंचे लिए जाए, दर
ओ दीवार के बीच, यूँ ही
भटकता है दिल
बंजारा, हर
ओर
रौशनी हर सिम्त जश्न ए मसर्रत
का आलम, दो पल ही मिल
जाएं डूबने वाले को
तिनके का
सहारा ।
- - शांतनु सान्याल

30 सितंबर, 2024

अवगाहन - -

अंतिम अध्याय में सूर्य भी खो

देता है रौद्र रूप, समंदर में
काँपता सा रह जाता है
तेजस्वी धूप, दिल 
के शीशे में है
जड़ित
प्रणय का प्रतिफलन, बिंदु -
बिंदु जीवन भर का
एक अमूल्य
संकलन,
डूब
कर भी किसी और जगह
एक नई शुरुआत,
बारम्बार जन्म
के पश्चात
भी नहीं
मिलती
निजात, अजीब सा तिलस्मी
खिंचाव रहा हमारे दरमियान,
सुदूर दिगंत रेखा पे कहीं
मिलते हैं ज़मीं
आसमान ।।
- - शांतनु सान्याल


19 सितंबर, 2024

मिलो तो सही - -

मिलो तो सही इक बार वैसे

मुझ में अब कुछ ख़ास
न रहा, कई भागों
में बंटने के
बाद
शून्य के सिवा कुछ पास न
रहा, दस्तकों की उम्र
ढल चुकी, दरवाज़े
भी हैं निष्क्रिय
से मौन,
घरों
के अंदर बन गए घरौंदे अनेक
कहीं भी आवास न रहा,
राजपथ के सीमांत,
कोने में कहीं
उभरता है
पूनम
का
चांद हर शै अनवरत है गतिमान
ताहम वो सुंदर मधुमास
न रहा, चाँदरात में
शायद आज
भी नहाते
हैं कच्ची
उम्र के
कोपल, शिद्दत से मिलते हैं लोग
लेकिन रिश्तों में वो मिठास
न रहा ।
- - शांतनु सान्याल


18 सितंबर, 2024

उस पार - -

इक हल्की सी लकीर झुकी

पलकों पे खींच गया
कोई, कुम्हलाए
हुए ख़्वाब
को जैसे
रात
ढले सींच गया कोई, अस्थिर
कमल पात पर देर तक
ठहरा हुआ था मेह
बूंद, वक्षस्थल
के सरोवर
को
उजाले से पूर्व उलीच गया
कोई, चिर दहन ले कर
आबाद रहता है
मुहोब्बत का
महानगर,
उस
पार है अदृश्य जग, दरवाज़ा
हौले से मीच गया कोई ।
- - शांतनु सान्याल

03 अगस्त, 2024

दिल का सुकून - -

कहने को हम सभी लोग हैं एक ही 

शहर के बाशिन्दे, ये और बात 

है कि दिल से मिलने की 

कोशिश नहीं होती,

न जाने कितने 

मोड़ से 

मिलता है ये एक अदद रास्ता, नीले 

दरीचे से झाँकते हैं बादल, पर 

बारिश नहीं होती, एक ही 

छत के नीचे यूँ तो 

गुज़र जाती है 

सारी ज़िंदगी,

अंतिम 

पल कुछ देर रुक जाने की गुज़ारिश 

नहीं होती,ज़रा सी बात पर न 

टूटे नाज़ुक दिलों के महीन 

से धागे, रहे लब 

ख़ामोश 

लफ़्ज़ों से इश्क़ ए नुमाइश नहीं होती,

ताउम्र भटका किए, ताहम ख़्वाबों 

का सफ़र है अधूरा, दिल की

गहराइयों में जो अक्स

उतरे बाद उसके

कोई और

ख़्वाहिश

नहीं

होती ।

- - शांतनु सान्याल




20 जुलाई, 2024

उजास - -

दो समानांतर पटरियां सुदूर पहाड़ियों के मध्य

जहां आपस में मिलती नज़र आती हैं, बस

वहीं तक वास्तविकता रहती है जीवित,

मध्यांतर में जो बिखरी हुई है चाँदनी

ले जाती है ज़िन्दगी को मिलन 

बिंदु की स्वप्निल कंदराओं

में, मध्य रात में होती हैं

जहां दिव्य शक्तियां

अवतरित, बस

वहीं तक वास्तविकता रहती है जीवित । एक

अदृश्य परिपूरक समीकरण बांधे रखता

है हमें अंतिम प्रहर की उजास तक,

देह से उतर जाते हैं सभी मान

अभिमान के खोल, जीवन

तब देख पाता है मुक्ति

पथ का पूर्वाभास,

निर्मोह हृदय

करना

चाहता है संचित अभिलाष को दोनों हाथों

से वितरित, बस वहीं तक वास्तविकता 

रहती है जीवित ।

- - शांतनु सान्याल

19 जुलाई, 2024

निःसीम गहराई - -

खुले बदन बारिश में, फिर भीगने की चाहत जागे,

नदी पहाड़ का खेल है ज़िन्दगी, उम्र के पीछे भागे,


गहन प्रणय तुम्हारा बना जाता है मुझे अश्वत्थ वृक्ष,

देह प्राण में बंध चले हैं अदृश्य मोह के रेशमी धागे,


अनगिनत सिंधु के पार है वो युगान्तर से प्रतिक्षारत,

छाया की तरह चलता है जो कभी पीछे कभी आगे,


ख़ुद को उजाड़ कर चाहा फिर भी थाह रहा अज्ञात,

निःसीम गहराई, उम्र से कहीं अधिक मुहोब्बत मांगे,

- - शांतनु सान्याल

14 जुलाई, 2024

ख़ाली हाथ - -

वक़्त का घूमता आईना सभी चेहरों को याद 

नहीं रखता, सुदूर पहाड़ियों में उठ रहा है

धुआं या बादलों की है चहलक़दमी,

दूरबीनों से हर एक सत्य नहीं

दिखता, हर एक मोड़ पर

हैं लिखे हुए गंतव्य के

ठिकाने, ताहम जिस 

की तलाश है उस

का पता नहीं

मिलता,

अभिलाष के बीजों को बोया किए बड़ी उम्मीदों 

के साथ, हर एक बीज लेकिन अंकुरित हो 

कर नहीं उभरता, अल्पायु होते हैं हर्ष के 

पल, किसे ख़बर कब जाएं बिखर,

शिशिर बिंदु कमल पात पर

ज़्यादा देर नहीं ठहरता,

ज़रुरी नहीं उपासना

में हो कमी, बहुत

कुछ चाहता

है दिल,

एक 

ही जीवन में लेकिन बहुत कुछ नहीं मिलता, 

वक़्त का घूमता आईना सभी चेहरों को 

याद नहीं रखता ।

- - शांतनु सान्याल





30 जून, 2024

जानबूझ कर विषपान - -

वक्षस्थल का प्रपात, तरंग विहीन हो कर भी 

आँखों से छलकना चाहे, न जाने कितने 

मुखौटों के बाद भी चेहरा अपने 

आप सत्य उजागर करना 

चाहे, ख़्वाहिशों की

भीड़ में खो जाते

हैं अंतरंग

चेहरे,

धुंध भरी वादियों में अक्सर ज़िन्दगी बेवजह

भटकना चाहे, वक्षस्थल का प्रपात, तरंग 

विहीन हो कर भी आँखों से छलकना 

चाहे । इक अजीब सी अनुभूति

देती है प्रणय गंध की सांद्रता,

आग्नेय शपथ के परे होता

है मुहोब्बत का अंतहीन

सफ़र, ये जान के भी

कि इस यात्रा का

अर्थ है भस्मी -

भूत होना,

हर हाल

में 

जीवन उसी के संग जीना मरना चाहे, वक्षस्थल 

का प्रपात, तरंग विहीन हो कर भी 

आँखों से छलकना चाहे ।

- - शांतनु सान्याल


21 जून, 2024

पुनर्प्राप्ति - -

दीर्घ तपते दिनों के बाद, सांध्य वृष्टि 

की तरह तुम्हारी आंखों में कहीं 

राहतों के द्वार खुल से चले 

हैं, निःशब्द निहारते हुए 

यूँ लगे असंख्य 

कविताएं 

तुम्हारे 

अधर तले निशि पुष्प की तरह पुनः 

खिले हैं । इक मीठा सा एहसास

जो बांधे रखता है एक दूजे 

को अथाह गहराइयों 

तक, एक रास्ता

जो रहस्यमय 

हो कर भी

हाथ

बढ़ाए पहुंचता है धुंधभरी खाइयों 

तक । एक हल्का सा मुलायम

स्पर्श शिराओं में घोल जाता 

है अनाम सुरभित लहर,

भटके हुए पथिक

को जैसे मिल 

जाए छूटा

हुआ

अपना घर ।

- - शांतनु सान्याल




भूमिका - -

सूखे पत्तों की नियति जो भी 

हो, लेकिन प्रकृति को पुनः 

जीवन दान देने में उनकी 

भूमिका अपने आप 

में है अप्रतिम !

ग़र समझ

पाए

तो,

तुम फलाने के बेटे हो शायद !

जिनसे मेरी चालीस साल 

की मित्रता है, तुमसे 

कुछ दिल की 

बात साझा 

कर 

सकता हूँ, जितना वक़्त के साथ 

नए चेहरों से मित्रता का 

दायरा बढ़ता चला 

जा रहा है

उतना 

ही 

अदृश्य छतरी के नीचे आश्रय 

का वृत्त भी बढ़ चला है, 

जिस छतरी को 

गुमशुदा सोचा 

था वो 

क्रमशः आकाश हो चला है, 

विस्तृत खुला खुला 

आसमान, दर -

असल टहनी 

से गिरते 

पत्तों

का 

हिसाब कोई नहीं रखता, बस

उसका आख़री ठिकाना

पृथ्वी का एक मुश्त

टुकड़ा होता है,

जिसे छू कर

उसे मोक्ष

मिलती

है ।

- - शांतनु सान्याल 


15 जून, 2024

जन समुद्र मंथन - -

अहरह एक ही हिसाब किताब, अहर्निश एक ही

जवाब, बस जी रहे हैं, यही तो है जीवन का
निर्वहन, शपथ समारोह, सुगंधित फूलों
का स्तवक, स्वागत गीत, मिथ्या -
प्रलोभन, सभी खड़े हैं हाथों
में ले कर सपनों के झुन
झुने, तथाकथित
लोकतांत्रिक
उत्सव का
पुनः
समापन, बस जी रहे हैं, यही तो है जीवन का
निर्वहन । सुर असुर सभी हैं लालायित,
निस्तब्ध हो चुका जन समुद्र मंथन,
अंकों के खेल में जो जीता वही
बना राजन, यथावत रहेगा
हासिए पर प्रजा का
स्थान, अट्टहास
करता रहा
हमेशा
की
तरह सिंहासन, बस जी रहे हैं, यही तो है जीवन
का निर्वहन, अपरिवर्तनशील पंचवर्षीय
भजन कीर्तन ।
- - शांतनु सान्याल

12 जून, 2024

मनोभ्रंश - -

ऐनक है सामने घूरता हुआ, हम तलाशते हैं

उसे न जाने कहाँ कहाँ, कौन रोकता है

ज़िन्दगी को अदृश्य डोर से पीछे,

बिखरे पड़े हैं स्मृति बूंद हर

तरफ़ यहाँ वहाँ । उम्र

के अंतिम पड़ाव

पर रुक जाते

हैं शब्दों के 

जुलुस

बस यही तो है उल्टी गिनती वाला मनोभ्रंश,

मुझे ज्ञात है तुम्हारे उकताहट का रहस्य,

मिठास में बंधा हुआ मद्धम विष 

दंश । तुम जानते हो अच्छी

तरह से मेरी दुर्बलताओं

के कारण, रिक्त थाल

पर बिखरा पड़ा 

है इंद्रधनुषी 

आवरण ।

- - शांतनु सान्याल


03 जून, 2024

नख चिन्ह - -

देह पर रह जाते हैं वक़्त के नख चिन्ह, जीवन 

फिर भी खड़ा रहता यथावत मौन वृक्ष की 

तरह, व्याघ्र छोड़ जाते हैं अपनी सत्ता

के क्रूर निशान, उस पार बहती है 

मायावी कोसी नदी, जीने की

अदम्य इच्छा का कभी 

नहीं होता अवसान, 

फिर सुबह जाग

उठेगा सारा

जन -

अरण्य, पुनः बिछाई जाएगी शतरंज की बिसात,

बढ़ते हुए जुलूस में फिर मोहरें तलाशे जाएंगे,

क्रमशः आतिशबाज़ी में दब के रह जाएंगे 

सभी ख़्वाब, सभी अरमान, कुछ भी

नहीं बदलेगा, वही सियासत के

नाख़ून वही कराहता हुआ

जिस्म ओ जान, जीवन

फिर भी खड़ा रहता 

यथावत मौन 

वृक्ष की 

तरह, व्याघ्र छोड़ जाते हैं अपनी सत्ता के क्रूर 

निशान ।

- - शांतनु सान्याल



02 जून, 2024

छायाहीन - -

चल रहा हूँ छायाहीन दरख़्तों के नीचे बिल्कुल

अकेला, मैंने सभी हरित पल लौटा दिए

तुम्हें, याद की शाखाओं में बस छूट 

गए कुछ जुगनुओं के आलोक

कण, निःस्व होने के बाद

जनशून्य सा लगे है

सुदूर ख़्वाबों

का मेला,

चल रहा 

हूँ छायाहीन दरख़्तों के नीचे बिल्कुल अकेला ।

इस ढलान के आख़री मोड़ पर कहीं हुआ

करता था एक गुलमोहर का पेड़, क़रीब

से आज भी बहती है अरण्य नदी, 

जिस के सीने में कहीं सूख

चुका है पुरातन सजल

स्रोत, किनारे में 

बस आबाद

हैं भट -

कटई

के पौधे, रेत पर बिखरे पड़े है हिंस्र पद चिन्ह,

असमाप्त रहता है आखेट का खेल, बस

मौसम के साथ जीवन भी बदलता है 

पोशाक, कभी सिंदूरी सुबह और

कभी रहस्यमय साँझ की बेला, 

चल रहा हूँ छायाहीन 

दरख़्तों के नीचे 

बिल्कुल

अकेला ।

- - शांतनु सान्याल


29 मई, 2024

बहोत दूर - -

न जाने कितनी योजन दूर है सुबह की पहली

किरण, ताहम रात का आँचल है सितारों 

का शुक्रगुज़ार, तुम लांघ सकते नहीं

सुलगते हुए बंदिशों के ज़ंजीर,

फिर भी मेरी बाहों को है

जां से गुज़र जाने का

इंतज़ार, ज़रूरी

नहीं सभी

नदियां

पा

जाएं समंदर की अंतहीन गहराई, राह चलते

हर शख़्स नहीं होता दिल से मददगार,

दवा के नाम पर झूठी तस्सली ही

सही, किसे ख़बर कौन सी

दुआ हो जाए असरदार,

हर कोई चाहता है

पाना जिस्मानी 

ख़ुशी, बहुत

मुश्किल

है पाना

रूह

तक उतरने वाला दिलदार, इस मोड़ के आगे

भी हैं अनगिनत मंज़िलों के रास्ते, आसां

नहीं पहचानना रहनुमाई का किरदार,

न जाने कितनी योजन दूर है सुबह 

की पहली किरण, ताहम रात 

का आँचल है सितारों 

का शुक्रगुज़ार ।

- - शांतनु सान्याल


16 मई, 2024

अर्पण - -

साँझ और बिहान के मध्य है आलोकित उत्थान -
पतन, अमावस हो या चाँदनी रात, शुक्र ग्रह
की रहती है हर सांस को तलाश,
ईशान कोण में जब कभी
उभरते हैं श्यामवर्णी
मेघ दल, कुछ
पल के
लिए
ही सही बुझता सा लगे जीवन दहन, साँझ और बिहान के मध्य है आलोकित उत्थान -
पतन । शब्दों के परे रहती हैं कुछ
अनुभूतियां, एक अनुरागी
छुअन जो क्रमशः 
जीवाश्म को 
लौटा जाते 
हैं 
विलुप्त स्पंदन, शताब्दियों से थमा हुआ वक़्त पुनः
हो जाता है गतिशील, मृत सीप के सीने में
रहता है झिलमिल प्रणय मोती, टूटे हुए
खोल से झाँकती सी है एक अद्भुत 
सप्तरंगी किरण, उन अनमोल 
पलों की अंजलि मैं तुम्हें
करना चाहता हूँ पूर्ण
अर्पण, साँझ और 
बिहान के 
मध्य है 
आलोकित उत्थान -पतन ।।
- - शांतनु सान्याल

10 मई, 2024

विखंडन - -

प्रकाश स्तम्भ की तरह अपनी जगह अनंत

काल से ठहरा हुआ रहता है एकाकी
प्रणय, लवणीय हवाओं से ख़ुद
का अपक्षरण करता हुआ,
क्रमशः देह प्राण का
अगोचर विखंडन,
चाँदनी रात हो
या मेघाच्छन्न
कालरात्रि,
असमाप्त प्रतीक्षा में अंतर्निहित रहता है एक
अपरिभाषित आनंद, क्षितिज और सैकत
के मध्य कभी नहीं टूटता अदृश्य मेल
बंधन, क्रमशः देह प्राण का अगोचर
विखंडन । अनगिनत नौकाएं
लौट आती हैं अपने
गंतव्यों की ओर,
झिलमिलाते
बंदरगाहों
में रात
भर
चलता रहता है क्रय विक्रय, निःसंग प्रकाश - -
स्तम्भ सुनता रहता लहरों का मौन क्रंदन,
फिर भी वो अनिद्रित आंखों से करता
है नव बिहान का अभिनंदन, क्रमशः
देह प्राण का अगोचर
विखंडन ।
- - शांतनु सान्याल

04 मई, 2024

द्विधा - -

सिर्फ़ निष्पलक देखते रहे, शब्दों के अमलतास

अपने आप मौन झर से गए, बहुत कुछ कहा
था उसने नयन कोण से, बरसने से पहले
कुछ जल बिंदु पलकों के तीर ठहर
से गए, न जाने क्या बात थी
हृदय तल की गहनता में,
कुछ कोंपलें निकले
ज़रूर लेकिन
अल्पायु में
मर से
गए, शब्दों के अमलतास अपने आप मौन झर से
गए । कोई ढूंढता रहा रेत की नदी में विलुप्त
जल स्रोत का पता, हवाएं मिटा देती हैं
सभी पदचिन्हों के निशान, यात्रा
नहीं रुकती किसी के लिए,
आमंत्रण नहीं करता
कोई भी रस्ता,
सुदूर पहाड़ों
में जल
रहे हैं
मायाविनी अरण्य, स्मृति भस्म में रह जाएंगे सभी
अमर लता, कोई ढूंढता रहा रेत की नदी में
विलुप्त जल स्रोत का पता ।
- - शांतनु सान्याल

28 अप्रैल, 2024

स्वीकारोक्ति - -

उम्र भर देखा है आईना ताहम
ए'तराफ़ कर न सके,
गहराइयों तक हैं धुंध दिल अपना साफ़ कर न सके,

दोहरे म'यार की सियासत है मीर ए कारवां के अंदर,
फिर भी वो बेदार ज़मीर को मेरे ख़िलाफ़ कर न सके,

दर्दे मुहोब्बत अपनी जगह ज़िंदगी का सच एक तरफ़,
जीने की सज़ा ले कर ख़ुद को कभी माफ़ कर न सके,
- - शांतनु सान्याल

26 अप्रैल, 2024

माया डोरी - -

देखता हूँ पारदर्शी इत्रदान के आर पार,

अनगिनत पुष्पों का अंतहीन हाहाकार,

असीम प्रणय को देना होता है बलिदान,
सजल आँख पर उष्ण बूंदों का वंदनवार,

समय के संग ढलना ही है जीवन सारांश,
बहुत मुश्किल है चलना स्वप्नों के अनुसार,

दो स्तम्भ के मध्य तनी रहती है माया डोरी,
टूटने पर, किसी को नहीं कोई भी सरोकार,
- - शांतनु सान्याल

बिखरे बिखरे अहसास - -

कुछ याद की पंखुडियां है मौजूद अभी तक टूटे गुलदान के तहत,

बिखरे बिखरे अहसास, पिघलते मोम की तरह, बूंद बूंद रिसते हुए
पलकों में अश्क थमें हों जैसे आबसार कोई बियाबाँ के तहत,

जाहिर न हो आम, वो इक सुलहनामा था, भूल जाने का अहद
मुद्दतों से जिसे सजा रखा है, सुलगते दिल-ऐ-अरमाँ के तहत ,

वो शमा जो बुझ कर है रौशन, हज़ार शम्स के बराबर
कोई खुशबू-ऐ-हयात हो जैसे, बिखरा ज़मीं ओ आसमां के तहत,

कोई तो होगा जहाँ में, जिसे मालूम हो उसका ठिकाना
सहरा सहरा, वादी वादी ,मंज़र आये गए उम्र-ऐ- रवां के तहत,

कभी मंदिर, कभी मस्जिद, हर शै पे लिखा पाया उसी का नाम
इक प्यास, इक आश दबी हो जैसे, हर इबारत-ऐ-बयां के तहत,
-- शांतनु सान्याल

24 अप्रैल, 2024

बेवजह ही - -

आख़िर मिलें तो किस से, जो भी मिले तो पूछे

मिलने की वजह, बस इसी एक बिंदु पर
आ कर मैं लौट आता हूँ अपने अंदर,
और खोजता हूँ सूखी नदी का
गुमशुदा स्रोत, वैसे दोनों
किनारे हैं मुद्दतों से
यथावत अपनी
जगह,
आख़िर मिलें तो किस से, जो भी मिले तो पूछे
मिलने की वजह । पलटता हूँ मैं आधी रात
आत्मीयता की किताब, सूखे पंखुड़ियों
के संग झर चली हैं शब्दों की नाज़ुक
पत्तियां, अल्बम के पृष्ठों से आज
भी उठ रहे हैं अनाम ख़ुश्बू !
उभर चले हैं धीरे धीरे
देह कोशिकाओं
में अदृश्य
स्पर्श
की उष्णता, ज़िन्दगी उभर रही है सतह दर सतह,
आख़िर मिलें तो किस से, जो भी मिले तो पूछे
मिलने की वजह ।
- - शांतनु सान्याल

23 अप्रैल, 2024

कोहरे में कहीं - -

तर्क ए मरासिम के अफ़साने थे बेशुमार,
शबनमी पलकों के सिवाय सब थे बेकार,

इक लकीर जो उफ़क़ में कहीं खो सी गई,
नई सुबह का हर शख़्स होता है तलबगार,

मुसलसल मर के जी उठना ही है ज़िन्दगी,
उभरने की चाह नहीं रोक सकती मंझधार,

ख़्वाब की घड़ी रोक रखती है उम्र के कांटे,
ये सही है कि रुकती नहीं वक़्त की रफ़्तार,

वही शाही रस्ता वही शहर भर की रौशनाई,
लामौजूद हूँ ताहम सज चले हैं मीनाबाज़ार,

कुछ चेहरों को नहीं मिलती वाजिब पहचान,
घने धुंध की वादियों में छुपे होते हैं आबशार,
- - शांतनु सान्याल

21 अप्रैल, 2024

वो नहीं लौटे - -

चारों तरफ असंख्य चेहरे फिर भी शून्यता दूर

तक, हर कोई बढ़ चला है अनजान सफ़र
में, हाथों में थामे हुए अनेक रहस्यमयी
तख्तियां, न जाने कौन है जो उन्हें
हाँक कर ले जा रहा है सुदूर
मिथक देश की ओर,
जहां बसते हैं
देवदूत,
उड़ती हैं महाकाय रंगीन परों की तितलियाँ, हर
कोई बढ़ चला है अनजान सफ़र में, हाथों
में थामे हुए अनेक रहस्यमयी तख्तियां ।
वो सभी चेहरे हैं भाषा विहीन, मूक
कदाचित बधिर भी, उनकी
आँखे हैं पथराई सी,
मशीन मानव की
तरह वो बढ़े
जा रहे हैं
नंगे
पांव ओंठों में लिए हुए शताब्दियों की अनबुझ
प्यास, शायद उन्हें है कल्प सरोवर की
तलाश, जहां पहुंच कर मिल जाए
जीवन को शाप मुक्ति, लुप्त
हो जाएं सभी चेहरे से
असमय की झुर्रियां,
हर कोई बढ़
चला है
अनजान सफ़र में, हाथों में थामे हुए अनेक
रहस्यमयी तख्तियां ।
- - शांतनु सान्याल

17 अप्रैल, 2024

समाधिस्थ अनुराग - -

तमाम आलोक स्रोत बुझ जाते हैं अपने आप,

जब अस्तित्व से कोई निकटस्थ तारा टूट
जाता है, महाशून्य में रह जाता है
केवल अनंत निस्तब्धता का
साम्राज्य, दरअसल,
अबूझ जीवन
विलम्ब से
जान
पाता है हृदय की मौन भाषा, कुछ कविताएं
अमूल्य अंगूठी की तरह खो जाती हैं
समय के गर्त में, जिसे उम्र भर
हम खोजते रह जाते हैं बस
स्मृति कुंज में पड़े रहते हैं
कुछ टूटे हुए अक्षर के
कंकाल, कोहरे में
भटकती रह
जाती है
प्रणय
आत्मा, समाधिस्थ हो जाती हैं देह की दुनिया,
पत्थरों पर पड़ा रह जाता है फूलों का
स्तवक निष्प्राण सा गंध विहीन ।
- - शांतनु सान्याल

13 अप्रैल, 2024

अदृश्य किनारा - -

परछाई बढ़ चली है, सुबह का मंजर न रहा,

हद ए निगाह, अब साहिल ए समंदर न रहा,

ये सच है कि, मुहोब्बत की कोई इंतहा नहीं,
वो जुनून ए इश्क़ अब दिलों के अंदर न रहा,

चेहरों पे हैं चस्पां, मुख़्तलिफ़ रंगों के मुखौटे,
जो सिखाए जीने का फ़न वो क़लन्दर न रहा,

ओढ़ कर ख़ुत्बा ए पैरहन हर मोड़ पे रहज़नी,
दिलों को जीत सके ऐसा कोई सिकंदर न रहा,

अजीब दौर है कि हज़ार ख़ेमों में बंट गए इंसां,
किस किनारे उतरें, घाट पे हक़ गो लंगर न रहा,
- शांतनु सान्याल

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past