इक हल्की सी लकीर झुकी पलकों पे खींच गया
कोई, कुम्हलाए
हुए ख़्वाब
को जैसे
रात
ढले सींच गया कोई, अस्थिर
कमल पात पर देर तक
ठहरा हुआ था मेह
बूंद, वक्षस्थल
के सरोवर
को
उजाले से पूर्व उलीच गया
कोई, चिर दहन ले कर
आबाद रहता है
मुहोब्बत का
महानगर,
उस
पार है अदृश्य जग, दरवाज़ा
हौले से मीच गया कोई ।
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 19 सितंबर 2024 को लिंक की जाएगी ....
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शानदार रचना
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावप्रवण रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर रचना
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