मिलो तो सही इक बार वैसे मुझ में अब कुछ ख़ास
न रहा, कई भागों
में बंटने के
बाद
शून्य के सिवा कुछ पास न
रहा, दस्तकों की उम्र
ढल चुकी, दरवाज़े
भी हैं निष्क्रिय
से मौन,
घरों
के अंदर बन गए घरौंदे अनेक
कहीं भी आवास न रहा,
राजपथ के सीमांत,
कोने में कहीं
उभरता है
पूनम
का
चांद हर शै अनवरत है गतिमान
ताहम वो सुंदर मधुमास
न रहा, चाँदरात में
शायद आज
भी नहाते
हैं कच्ची
उम्र के
कोपल, शिद्दत से मिलते हैं लोग
लेकिन रिश्तों में वो मिठास
न रहा ।
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 25 सितंबर 2024 को साझा की गयी है....... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं