30 दिसंबर, 2024

नए दर्पण के पार - -

अनिमेष दृष्टि लिए गुज़रती है रात, सुदूर दूरगामी

रेलगाड़ी की आवाज़ हो चुकी है लुप्तप्राय,
पटरियों के सीने में है दफ़न वक़्त की
कंपन,हम चल रहे हैं ख़ामोश
शताब्दियों से उसी रास्ते
जहाँ जीवन की होती
है अनवरत क्रमिक
उत्क्रांति, हिम
नदी के
वक्षःस्थल से उभरते हैं द्रवित शैल दहन, पटरियों
के सीने में है दफ़न वक़्त की कंपन । वही
प्रागैतिहासिक जीवन नए रूप रंग
नए परिवेश में, शिकार और
शिकारी के मध्य वही
लुकाछिपी, बहुत
कुछ बदलने
के बाद
भी
वही पुरातन हिंस्र आवेश, कौन किसे कैसे ठगेगा
गिरह दर गिरह रहस्य अशेष, सफ़ेद दीवारों
पर काली परछाइयों का वृन्द नर्तन,
पटरियों के सीने में है दफ़न
वक़्त की कंपन, चेहरे
वही हैं चारों तरफ़
सिर्फ़ बदलता
रहा है नए
साल
का मायावी दर्पण, पटरियों के सीने में है दफ़न
वक़्त की कंपन ।
- - शांतनु सान्याल



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