अथक, बस बहे जा रहे हैं,
दोनों किनारे चाहते हैं
हमें निगल जाना,
प्रस्तर खण्ड
से टकराते
हुए हमारा वजूद
लिख रहा है रेत पर कुछ नई
कहानियां, हटा रहे हैं हम
कुछ अज्ञात
पृष्ठभूमि
पर
नग्न सत्य की घनी परछाइयां,
अभिलाष का जल तरंग
अब भी बज रहा है
वक्षःस्थल के
गहन में,
शुभ्र
शंख के अंदर छुपा बैठा है
अभी तक जीवंत मोह
तिमिर सघन में,
उभर चले हैं
पुनः
अजस्र बुलबुले जीवन के
धरातल में, बुला रही हैं
हमें स्वप्नमयी अतल
की मायावी अथाह
गहराइयां, हटा
रहे हैं हम कुछ
अज्ञात
पृष्ठभूमि पर नग्न सत्य की
घनी परछाइयां ।
- - शांतनु सान्याल
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 18 दिसंबर को साझा की गयी है....... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!