रात के तमाम पर्दे क्रमशः उठे और गिर गए,
आकाश समेट गया नीला आलोकित
शामियाना, सुदूर कोहरे में खड़ी
है लाजवंती सुबह, कुछ पल
की नीरवता, पुनः जीवन
का है मैराथन, अलिंद
के देह को छूती
हुई ऊपर
उठ
चली है मोर्निंग ग्लोरी की नाज़ुक बेल, हाथो
में अख़बार लिए उसे निर्मिनेष तकना
है एक सुखद एहसास, जैसे कोई
मासूम बच्चा रैलिंग के मध्य
से देखना चाहे उड़ते
हुए कबूतरों का
समूह, कुछ
भटके
हुए
पीली तितलियां, कुछ विस्मृत दस्तकों के शब्द
तलाश करते हैं तुम्हारा बिम्ब, सीने के अथाह
गहराई में, शीर्षक के सिवाय कुछ पढ़ने
की अब ख़्वाहिश नहीं होती ।
* *
- शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें