ख़्वाब दर ख़्वाब ज़िन्दगी तलाशती है नई मंज़िलों का ठिकाना, वो
तमाम खोल जो वक़्त
के थपेड़ों ने उतारे,
उन्हीं उतरनों
को देख,
चाहता हूँ ख़ुद को यूँ ही भूल जाना,
कुछ पल जो पत्तों के नोक
पर थे ओस बून्द की
तरह अस्थिर,
रात ढले
पिघले
हुए मोम पर बिखरा पड़ा था इश्क़ ए
ख़ज़ाना, न जाने कौन सूंघ गया
सारे शहर को दूर तक है
अंतहीन ख़ामोशी,
किसे आवाज़
दें कौन
भला
समझेगा दिल का नज़राना, हर किसी
को चाहिए जिस्म ओ जां की
दुनिया, निरंतर लेन देन,
मुश्किल है उन्हें रूह
से रुबरु
मिलवाना ।
- - शांतनु सान्याल
सुन्दर
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