19 जुलाई, 2024

निःसीम गहराई - -

खुले बदन बारिश में, फिर भीगने की चाहत जागे,

नदी पहाड़ का खेल है ज़िन्दगी, उम्र के पीछे भागे,


गहन प्रणय तुम्हारा बना जाता है मुझे अश्वत्थ वृक्ष,

देह प्राण में बंध चले हैं अदृश्य मोह के रेशमी धागे,


अनगिनत सिंधु के पार है वो युगान्तर से प्रतिक्षारत,

छाया की तरह चलता है जो कभी पीछे कभी आगे,


ख़ुद को उजाड़ कर चाहा फिर भी थाह रहा अज्ञात,

निःसीम गहराई, उम्र से कहीं अधिक मुहोब्बत मांगे,

- - शांतनु सान्याल

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