देह पर रह जाते हैं वक़्त के नख चिन्ह, जीवन
फिर भी खड़ा रहता यथावत मौन वृक्ष की
तरह, व्याघ्र छोड़ जाते हैं अपनी सत्ता
के क्रूर निशान, उस पार बहती है
मायावी कोसी नदी, जीने की
अदम्य इच्छा का कभी
नहीं होता अवसान,
फिर सुबह जाग
उठेगा सारा
जन -
अरण्य, पुनः बिछाई जाएगी शतरंज की बिसात,
बढ़ते हुए जुलूस में फिर मोहरें तलाशे जाएंगे,
क्रमशः आतिशबाज़ी में दब के रह जाएंगे
सभी ख़्वाब, सभी अरमान, कुछ भी
नहीं बदलेगा, वही सियासत के
नाख़ून वही कराहता हुआ
जिस्म ओ जान, जीवन
फिर भी खड़ा रहता
यथावत मौन
वृक्ष की
तरह, व्याघ्र छोड़ जाते हैं अपनी सत्ता के क्रूर
निशान ।
- - शांतनु सान्याल
अर्थपूर्ण रचना सर।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ४जून २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रतीकात्मक रचना
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
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