02 जून, 2024

छायाहीन - -

चल रहा हूँ छायाहीन दरख़्तों के नीचे बिल्कुल

अकेला, मैंने सभी हरित पल लौटा दिए

तुम्हें, याद की शाखाओं में बस छूट 

गए कुछ जुगनुओं के आलोक

कण, निःस्व होने के बाद

जनशून्य सा लगे है

सुदूर ख़्वाबों

का मेला,

चल रहा 

हूँ छायाहीन दरख़्तों के नीचे बिल्कुल अकेला ।

इस ढलान के आख़री मोड़ पर कहीं हुआ

करता था एक गुलमोहर का पेड़, क़रीब

से आज भी बहती है अरण्य नदी, 

जिस के सीने में कहीं सूख

चुका है पुरातन सजल

स्रोत, किनारे में 

बस आबाद

हैं भट -

कटई

के पौधे, रेत पर बिखरे पड़े है हिंस्र पद चिन्ह,

असमाप्त रहता है आखेट का खेल, बस

मौसम के साथ जीवन भी बदलता है 

पोशाक, कभी सिंदूरी सुबह और

कभी रहस्यमय साँझ की बेला, 

चल रहा हूँ छायाहीन 

दरख़्तों के नीचे 

बिल्कुल

अकेला ।

- - शांतनु सान्याल


1 टिप्पणी:

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past