30 जून, 2024

जानबूझ कर विषपान - -

वक्षस्थल का प्रपात, तरंग विहीन हो कर भी 

आँखों से छलकना चाहे, न जाने कितने 

मुखौटों के बाद भी चेहरा अपने 

आप सत्य उजागर करना 

चाहे, ख़्वाहिशों की

भीड़ में खो जाते

हैं अंतरंग

चेहरे,

धुंध भरी वादियों में अक्सर ज़िन्दगी बेवजह

भटकना चाहे, वक्षस्थल का प्रपात, तरंग 

विहीन हो कर भी आँखों से छलकना 

चाहे । इक अजीब सी अनुभूति

देती है प्रणय गंध की सांद्रता,

आग्नेय शपथ के परे होता

है मुहोब्बत का अंतहीन

सफ़र, ये जान के भी

कि इस यात्रा का

अर्थ है भस्मी -

भूत होना,

हर हाल

में 

जीवन उसी के संग जीना मरना चाहे, वक्षस्थल 

का प्रपात, तरंग विहीन हो कर भी 

आँखों से छलकना चाहे ।

- - शांतनु सान्याल


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