कोई कितना भी चढ़ा ले रंग जाफ़रानी,
अदृश्य वहशीपन को रंगना नहीं
है सरल, वो सभी आदिम
पल जो हम गुज़ार
आए, दुनिया
की सोच
जो भी
हो,
अपनी नज़र से बचना है बहुत विरल,
अदृश्य वहशीपन को रंगना नहीं है
सरल। आख़री प्रहर तक वो
जागता है, मेरे शरीर के
बहुत अंदर, निर्वस्त्र
मेरा अस्तित्व
समेटता है
ख़ुद को
ख़ुद
से बाहर, रात जाते जाते, गिरा जाती
है सभी रेत के महल, अदृश्य
वहशीपन को रंगना नहीं
है सरल। सुबह से
पहले उतर
जाती हैं
सभी
पूरबेला, सुदूर क्षितिज में कहीं होता
है नीलाकाश तब बहुत ही अकेला,
सागर सैकत में प्रथम किरण
ढूंढते हैं मुक्तामणि,
टूटे हुए सीपों
के बिखरे
हुए
खोल, नहीं दे पाते गुमशुदा मोतियों
के ठिकाने, कुछ पहेलियों का
नहीं होता है शाब्दिक हल,
अदृश्य वहशीपन को
रंगना नहीं है
सरल।
* *
- - शांतनु सान्याल
06 मार्च, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
सच है कि अपनी ही नज़र से बचा नहीं जा सकता ।
जवाब देंहटाएंगहन भाव लिए सुंदर प्रस्तुति ।
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंपूरबेला, सुदूर क्षितिज में कहीं होता
जवाब देंहटाएंहै नीलाकाश तब बहुत ही अकेला,
सागर सैकत में प्रथम किरण
ढूंढते हैं मुक्तामणि,
टूटे हुए सीपों
के बिखरे
हुए
खोल, नहीं दे पाते गुमशुदा मोतियों
के ठिकाने, कुछ पहेलियों का
नहीं होता है शाब्दिक हल,
अदृश्य वहशीपन को
रंगना नहीं है
सरल।
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने , काफी गहराई है , अति उत्तम कृति, सादर नमन
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएं
जवाब देंहटाएंअदृश्य वहशीपन को रंगना नहीं
है सरल, वो सभी आदिम
पल जो हम गुज़ार
आए, दुनिया
की सोच
जो भी
हो,
अपनी नज़र से बचना है बहुत विरल,..बहुत सही कहा है आपने..सुंदर सृजन..
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंगहन भाव आ0
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर लिखा है आपने आदरणीय सर।
जवाब देंहटाएंख़ुद से कब कौन बच पाया है लोग ख़ुद से मुँह मोड़ लेते है।
सादर
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंअपनी नज़र से बचना है बहुत विरल,
जवाब देंहटाएंअदृश्य वहशीपन को रंगना नहीं है
सरल। आख़री प्रहर तक वो
जागता है, मेरे शरीर के
बहुत अंदर, निर्वस्त्र
मेरा अस्तित्व
समेटता है
सही कहा आपने अपनी नजरों से बचना बहुत मुश्किल होता है.. सुन्दर रचना...
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंमन को बहुत भीतर तक छू लेने वाली रचना वी
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएं