30 मार्च, 2021

अयाचित अवतरण - -

शताब्दियों से चल रहे हैं लोग उत्क्रांति
की ओर, आफ्रिका के गोचर भूमि
से निकल कर, शुष्क महा -
द्वीप से हो कर पृथ्वी
के अंतिम बिंदु
तक, फिर
भी
अपने अंदर के आईने में हम पाते हैं - -
अंधेरा घन घोर, शताब्दियों से
चल रहे हैं, लोग उत्क्रांति
की ओर। असमाप्त
ये रास्ता न जाने
किस शीर्ष
बिंदु
पर रुकेगा, अक्ष रेखा पर बिखरे पड़ें हैं
अनगिनत उम्मीद के बिम्ब, लहू -
लुहान कणों में, समय तलाश
करता है कोई अयाचित
अवतरण, जो रोक
पाए, मानवता
का अंतिम
क्षरण,
जिसके शिराओं में बहता हो सत्य का
रक्त पुरज़ोर, शताब्दियों से चल
रहे हैं लोग उत्क्रांति की
ओर।

* *
- - शांतनु सान्याल
 

 




 

11 टिप्‍पणियां:

  1. अपने अन्दर ही तो नहीं देख पाते लोग ... अच्छी प्रस्तुति .

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    1. आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह। संगीता स्वरुप ( गीत )

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 30 मार्च 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. अति उत्तम, बहुत ही अच्छी रचना , सादर नमन होली की हार्दिक शुभकामनाएं, शुभ प्रभात

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  5. बहुत सुंदर सृजन है आपका।
    उत्क्रांति की बातें पर्याय: छलावा ही बन कर रह जाती है।
    बहुत अभिनव विषय है।
    साधुवाद।

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