सूखते किनार, एक बारीक से धार,
सुदूर है सजल पारापार, पत्थरों
के मध्य कहीं खो गए हैं
हमारे पैरों के छाप,
अधझरे कुछ
पलाश,
लौटने को है बस कुछ ही दिनों में
मधुमास, अभी तक हैं उभरे
हुए दरख़्त के तनों में
कुछ नाम, करते
हैं बयां बहुत
कुछ यूँ
ही
चुपचाप, पत्थरों के मध्य कहीं खो
गए हैं हमारे पैरों के छाप। न
जाने किसे पुकारता हुआ
उड़ चला है टिटहरी
एक तनहा, या
दे गया हो
हमें
विलुप्त नदी का पता, काश जान
पाते उसकी ज़बां, कुछ श्वेत
मेघ उतर चले हैं संकीर्ण
सरोवर के कगार,
सुदूर अरण्य
सीमान्त
की
ओर उड़ चले हैं सारस युगल, - -
कुछ अनुराग के कण
झिलमिला चले
हैं तुम्हारे
आँखों
की
गहराइयों में, फिर डूब चले हैं हम
न जाने कहाँ अपने आप,
पत्थरों के मध्य कहीं
खो गए हैं हमारे
पैरों के
छाप।
* *
- - शांतनु सान्याल
01 मार्च, 2021
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सूखते किनार, एक बारीक से धार,
जवाब देंहटाएंसुदूर है सजल पारापार, पत्थरों
के मध्य कहीं खो गए हैं
हमारे पैरों के छाप,
अधझरे कुछ
पलाश,
- एक बेहतरीन रचना। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय शान्तनु सान्याल जी।
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 02 मार्च 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंमधुमास जा रहा तो फाल्गुन आ रहा । बस मन में उत्सव होना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति ।
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुंदर मोहक सृजन।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
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