पत्थर के साथ बाँध कर भी, ग़र
डुबो आओ, किसी अगाध
जल में, अनुभूतियों
के पाण्डुलिपि,
हर हाल में
आते हैं
उभर, उसके चेहरे में था लिखा -
जीवन का सारांश, उसके
आँखों की गहराइयों
में थे, तैरते हुए
शब्दों के
तिनके,
वो मेरा ही बिम्ब था जिसे ढूंढा
किया उम्रभर, अनुभूतियों
के पाण्डुलिपि, हर हाल
में आते हैं उभर।
वो अधजला
अभिमान
ही था
यातना भार, हर कोई जानता है
दूरत्व विधि का ज्ञान, क्यों
कर बनता कोई, मेरे दर्द
का भागीदार, अपना
जिसे सोचता रहा
वो कभी न
था मेरा
अपना घर, वो मेरा ही बिम्ब था
जिसे ढूंढा किया उम्रभर।
एक संदूक प्रेम हो
या वटवृक्ष के
नीचे का
ध्वंस -
स्तूप, झर जाते हैं सभी एक दिन
जैसे हेमवर्ण कृष्णचूड़, झीं झीं
शब्दों में कहीं घुल जाती
है चाँदनी, कंटक वन
की ओर बढ़
जाते हैं
तब
दीर्घ निःश्वास, रात बढ़ती जाती
है निरंतर, हिय से तब लेते
हैं जन्म, अपरिभाषित
अक्षर - -
* *
- - शांतनु सान्याल
09 मार्च, 2021
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माइंड ब्लोइंग लेखन है आपका।
जवाब देंहटाएंअनुभूतियों की पांडुलिपियां कहाँ डूब पाती है। मन को शब्द।
नई रचना
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर और हृदय स्पर्शी रचना।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत बढ़िया।🌻
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
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