08 मार्च, 2021

तैरता हुआ उम्मीद - -

सीमाहीन नीरवता में कहीं गुम है
अश्वमेध का घोड़ा, यज्ञ के
अंगार कब से हो चुके
राख, निःशब्द हैं
सभी विजय
शंख -
ध्वनि, पताकाओं के रंग हो चुके -
हैं धूसर, दिग्विजय की चाह
ने उजाड़ दी है आबाद
जनपद, ज़मीन
भी हो
चले हैं ऊसर, मृत पड़े बीजों को - -
चाहिए विलुप्त संजीवनी,
निःशब्द हैं सभी
विजय शंख -
ध्वनि।
श्रृंखलों में आबद्ध हैं सभी तारीख़
और सन, ढोना पड़ेगा इस
ऋण को आजीवन, न
जाने वो कौन सी
रूपकथाओं
की बात
करते
हैं, यहाँ हर पल जीने की चाह -  
में हम मरते हैं, न शुक्र है
मेहरबां न ही दयावान
कोई शनि, निःशब्द
हैं सभी विजय
शंख ध्वनि।
वृक्ष भी
वही,
फूल भी चिरंतन, लेकिन फल -
नहीं हो पाते पूर्णांग, जलते
ही बुझ जाते हैं सभी
प्रदीप शिखा, फिर
भी न जाने
कौन
है जो अंधकार के माथे लगा जाता
है चाँद का टीका, लगा जाता
है शेष प्रहर, क्षितिज के
किनारे उजालों से
भरी आशा की
तरणि,
निःशब्द हैं सभी विजय शंख ध्वनि।  

* *
- - शांतनु सान्याल

8 टिप्‍पणियां:

  1. हैं, यहाँ हर पल जीने की चाह -
    में हम मरते हैं, न शुक्र है
    मेहरबां न ही दयावान
    कोई शनि, निःशब्द
    हैं सभी विजय
    शंख ध्वनि।
    वृक्ष भी
    वही,
    फूल भी चिरंतन, लेकिन फल -
    नहीं हो पाते पूर्णांग, जलते
    ही बुझ जाते हैं सभी
    प्रदीप शिखा, फिर
    भी न जाने
    कौन
    है जो अंधकार के माथे लगा जाता
    है चाँद का टीका, लगा जाता
    है शेष प्रहर, क्षितिज के
    किनारे उजालों से
    भरी आशा की
    तरणि,
    निःशब्द हैं सभी विजय शंख ध्वनि।
    अति उत्तम आपकी सभी रचनाएँ गहरी सोच को दर्शाती हैं, बहुत ही सुंदर रचना, हृदय स्पर्शी , महिला दिवस की बधाई हो आपको सादर नमन, शुभ प्रभात

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  2. बहुत सुन्दर।
    अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  3. अंतर्मन में उतरती हुई उत्कृष्ट रचना ..हमेशा की तरह शानदार चिंतन ..

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  4. बहुत अच्छी रचना शांतनु जी । निस्संदेह !

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