किसे ढूंढती हैं नज़रें, ये किस की कोहरे में,
ज़रा ज़रा है याद बाक़ी, कहाँ हम मिले
थे, कहाँ सब कुछ भूल आए, शाम
ए चिराग़ बुझने की थोड़ी सी
है मियाद बाक़ी, कोई
स्पर्श गंध है जो
अभी तक
तैरती
सी
इन हवाओं में, कुछ कांच के टुकड़े बिखरे -
पड़े हैं बालकनी के नीचे, शून्य
खिड़कियों में कहीं, हलकी
सी है बरसात बाक़ी,
किसे ढूंढती हैं
नज़रें, ये
किस
की
कोहरे में, ज़रा ज़रा है याद बाक़ी, नहीं - -
सिमटता है जीवन का नीला कैनवास,
जिसे जो उकेरना है उकेर जाए,
मेघ के सरकते ही फ़ीके
रह जाते हैं कुछ
अनुभूति,
कुछ
शब्द हथेलियों में हो जाते हैं निराकार जल
छवि, कितना भी फड़फड़ा लें अपने
सप्तरंगी डैने, उस अदृश्य
मोहपाश से अभी है
निजात बाक़ी,
किसे ढूंढती
हैं नज़रें,
ये
किस की कोहरे में, ज़रा ज़रा है याद बाक़ी।
* *
- - शांतनु सान्याल
16 मार्च, 2021
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बड़ी प्यारी सी कविता.... दिल छूने वाली
जवाब देंहटाएंसाधुवाद
🙏
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर और सटीक रचना।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबेहद प्यारी रचना....लाख भूल यादें जरा जरा सी बाकी रह ही जाती है... सादर नमन
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंमन में उतरती हुई सुंदर कविता ।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंउस अदृश्य मोहपाश से अभी है निजात बाक़ी । यादों से किसे निजात मिली है शांतनु जी ? और अगर जो इन्हें निकाल दिया जाए तो ज़िन्दगी में बचेगा भी क्या ?
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत बहुत सराहनीय
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
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