20 मार्च, 2021

डूबे हुए पहिए - -

उभरे हुए माटी के गर्भ में, कहीं सोते हैं
राख़रंगी सभी ख़्वाब, बुझ चुके हैं
एक मुद्दत से, हड्डियों के
ढांचे में कहीं वक्ष -
स्थल के
आग,  
रास्ते के उस पार, एक और है कच्चा -  
रास्ता जो खो जाता है थोड़ी दूर जा
कर अंधेरे में कहीं, उसी काई
भरे किराए के घर में
जलता है, एक
चालीस
वाट
का पीला बल्ब सारी रात, बुझ चुके हैं
एक मुद्दत से, हड्डियों के ढांचे में
कहीं वक्ष स्थल के आग। एक
प्याली चाय से उठता
हुआ ताज़गी
भरा वाष्प,
सामने
तुम्हारे खुला हुआ है जलरंग समाचार,
सिलवट भरी रात की चादर, सुबह
उठा कर जाता है झटक, छुप
जाते हैं सभी बिलों के
बहोत अंदर कुछ
महाकाय
मूस,
और कुछ विषाक्त सांप, एक प्याली -
चाय से उठता हुआ, ताज़गी भरा
वाष्प। बारिश में डूब जाता है
कच्चा आंगन, ईंटों के
ऊपर अंदाज़न,
गिरते और
संभलते
पांव
रखते हुए रात गुज़ारता है जीवन, हाथ
में लिए एक किलो कनकी, लौटता
है जुलूस से नेकलाल, रिक्शे
के आधे चक्के डूब चुके
हैं काले बदबूदार
पानी में,
पीठ
में उभर आया है समय का कुबड़, टाट
के दरवाज़े पर हैं उभरे हुए जीवन
संवाद, सभी जलरंग चित्र
धीरे धीरे मिट जाते
हैं, मौन हैं सभी
राजप्रांगण,
बारिश
में
डूब जाता है कच्चा आंगन, उलटे छाते
से खेलता है अनवरत श्रावण - -

* *
- - शांतनु सान्याल

 



15 टिप्‍पणियां:

  1. टाट के दरवाज़े पर हैं उभरे हुए जीवन संवाद, सभी जलरंग चित्र
    धीरे धीरे मिट जातेहैं, मौन हैं सभी राजप्रांगण,
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।

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  2. उल्टे छाते से श्रवण का खेलना अलग ही भाव दे रहा ।।गहन अभिव्यक्ति

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  3. बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर।
    सराहना से परे।
    सादर

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  4. दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।

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