उभरे हुए माटी के गर्भ में, कहीं सोते हैं
राख़रंगी सभी ख़्वाब, बुझ चुके हैं
एक मुद्दत से, हड्डियों के
ढांचे में कहीं वक्ष -
स्थल के
आग,
रास्ते के उस पार, एक और है कच्चा -
रास्ता जो खो जाता है थोड़ी दूर जा
कर अंधेरे में कहीं, उसी काई
भरे किराए के घर में
जलता है, एक
चालीस
वाट
का पीला बल्ब सारी रात, बुझ चुके हैं
एक मुद्दत से, हड्डियों के ढांचे में
कहीं वक्ष स्थल के आग। एक
प्याली चाय से उठता
हुआ ताज़गी
भरा वाष्प,
सामने
तुम्हारे खुला हुआ है जलरंग समाचार,
सिलवट भरी रात की चादर, सुबह
उठा कर जाता है झटक, छुप
जाते हैं सभी बिलों के
बहोत अंदर कुछ
महाकाय
मूस,
और कुछ विषाक्त सांप, एक प्याली -
चाय से उठता हुआ, ताज़गी भरा
वाष्प। बारिश में डूब जाता है
कच्चा आंगन, ईंटों के
ऊपर अंदाज़न,
गिरते और
संभलते
पांव
रखते हुए रात गुज़ारता है जीवन, हाथ
में लिए एक किलो कनकी, लौटता
है जुलूस से नेकलाल, रिक्शे
के आधे चक्के डूब चुके
हैं काले बदबूदार
पानी में,
पीठ
में उभर आया है समय का कुबड़, टाट
के दरवाज़े पर हैं उभरे हुए जीवन
संवाद, सभी जलरंग चित्र
धीरे धीरे मिट जाते
हैं, मौन हैं सभी
राजप्रांगण,
बारिश
में
डूब जाता है कच्चा आंगन, उलटे छाते
से खेलता है अनवरत श्रावण - -
* *
- - शांतनु सान्याल
20 मार्च, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
टाट के दरवाज़े पर हैं उभरे हुए जीवन संवाद, सभी जलरंग चित्र
जवाब देंहटाएंधीरे धीरे मिट जातेहैं, मौन हैं सभी राजप्रांगण,
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंवाह!शांतनु जी ,बेहतरीन ।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंउल्टे छाते से श्रवण का खेलना अलग ही भाव दे रहा ।।गहन अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर।
जवाब देंहटाएंसराहना से परे।
सादर
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति जी ।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत बहुत प्रशंसनीय रचना
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएं