30 नवंबर, 2020

जल बिंदुओं का खेल - -

घूमती हुई पृथ्वी, और टूटे हुए तारे
का मिलना, अपनी जगह में
लिख जाता है, न जाने
कितने झुलसते
हुए सुखों
की
कहानियां, आज भी मेरे सीने में हैं
टूटे हुए इंद्रधनुष के सात रंग,
ये कभी सूखते नहीं,
बल्कि रात
गहराते
ही,
उकेरते हैं, नित नए ज़िन्दगी के -
ख़ूबसूरत ख़्वाब, नयन तटों
के आसपास, उम्र बढ़ा
जाते हैं तुम्हारे
रहस्यमय -
प्रणय
की
परछाइयां, दस्तकों का राज़ रहे
बंद, गुज़रे हुए लम्हात की
तिजोरी में, चाबियाँ
उसने फेंख दी है
कोहरे में डूबी
हुईं गहरी
घाटियों
में,
कभी कभी दिल को छू जाती हैं -
वक़्त की, मंत्र मुग्ध करतीं
ये जल बिंदुओं की तरह
खेलतीं उछलतीं
नादानियां।

* *
- - शांतनु सान्याल


 

बुझने के बाद कुछ भी नहीं - -

समानांतर चलते रहे हम, बहुत दूर
तक, रेल की पटरियों पर,
थामे हुए एक दूसरे
के हाथ, पता
ही न चला
कब
समय की धुंध ने, खींच दी तिर्यक
रेखा हमारे दरमियां, निःशब्द
टूट गया तथाकथित, कई
जन्मों का साथ।
हम अविरल
बहते रहे
अपने
अपने गहन अन्तःकरण के बहाव
में, मौसम की पवन चक्की
में घूमते रहे, तारीख़ों
के अंक, ख़ाली
होते चले
गए
कैलेण्डर के पृष्ठ, रह गए केवल -
कुछ क्रास के निशान, धँस
चुकी है, आधे से कहीं
ज़्यादा, ज़िन्दगी
की कगार,
नदी
के
अंदरूनी, अदृश्य कटाव से। इस
सतत बहती, अंतःस्रोत के
तट पर बसते हैं कहीं,
आज भी कुछ
जुगनुओं
की
बस्तियां, शैशव से वार्धक्य तक
पहुँचना भी अपनी जगह है
संग्राम, न जाने कितने
ख़्वाबों ने उभारा, न
जाने कितने
यर्थाथ  
ने
डुबोया फिर भी, निरंतर तैरती
रहीं काग़ज़ की कश्तियाँ,
हर चीज़ रहेंगी अपनी
जगह यथावत,
कोई फ़र्क़
नहीं
पड़ता इस जगत में किसी के
जुड़ाव या अलगाव से,
उष्णता और प्रीत
के मध्य है
अदृश्य
सेतु,
जब तक है आग, तब तक हर
कोई रहता है, जुड़ा हुआ
अलाव से, फिर वही
तन्हाइयों का
सफ़र,
बढ़ती हुई परछाइयों का शहर,
ज़िन्दगी तलाश करती है
एक पल सुकून का
तंग हो कर
दुनिया
के
अंतहीन मोल भाव से, कोई फ़र्क़
नहीं पड़ता इस जगत में
किसी के जुड़ाव या
अलगाव से - -

* *
- - शांतनु सान्याल
 


 
   
 

29 नवंबर, 2020

अपना अपना दृष्टिकोण - -

समय जहाँ हो जाए स्तब्ध, स्रोतहीन
स्मृतियाँ बन जाती हैं इतिहास,
स्वप्न देखना ज़रूरी है
जीवित रहने का
सिर्फ़ यही
है एक
मात्र आभास।  कुछ अतीत को भूल
कर, नए अंदाज़ लिए ख़्वाब
देखते हैं, सत्य, मिथ्या
और अभिनय के
त्रिकोण में
कहीं
हम जीवन का उलझा हुआ हिसाब
देखते हैं। दिन बदलते हैं, रातें
भी सरक जाती हैं, उजालों
की ओर, कंबलों के
आवरण ढक
कर लिए
जाते
हैं
न जाने कितने मासूम चेहरों को,
ख़्वाब बेचने वालों की ओर।
रंगीन रौशनी है हर
तरफ़, पसरा
हुआ है
दूर
तक मीनाबाज़ार, हर एक चीज़ है  
उपलब्ध यहाँ, सिवा एक के
जिसे ख़रीदा नहीं जा
सकता, वो मिल
जाता है भाग्य
से और खो
जाए तो
उम्र
भर उसकी क़ीमत चुकानी होती है,
मानों तो बहुत कुछ है, तुम्हारे
आंचल में, और न मानों
अगर, तो पानी का
बुलबुला है, ये
संसार।

* *
- - शांतनु सान्याल
 


अनागत बिहान - -

एक दिन ज़रूर आएगा,वो अनागत
प्रभात, जिसके आँचल में पुनः
मुकुलित होंगे, आसन्न
प्रजन्म के प्रसून,
उस दिगंत
रेखा
से फिर उभरेगा नव युग का सूरज
अकस्मात, उस कच्ची धूप
की वादी में फिर उड़ेंगे
सहस्त्र पारदर्शी
तितलियां,
खिलेंगे
सभी
चेहरे नई उम्मीद के साथ हाथों में
उठाए नव सृजन की पताकाएं,
खुल जाएंगे उस मन्नत
की सुबह, ज़ुल्म ओ
सितम की
बेड़ियाँ,
उस
प्रातः के वक्ष स्थल से होंगी नव -
जात स्रोत का उदय, सभी
अभिशापित प्राणों को
मिलेगा नवीन 
जीवन का
वरदान,
उस
अयाचित काल में हम तुम रहें न
रहें, लेकिन पृथ्वी की गोद
में उभरेंगे सदियों से
दबे कुचले वो
सभी बीज
जो
अंकुरित हो न सके, पुनः किशलयों
में बिखरेगी, बूंद बूंद अदृश्य
सत्ता की ओस, सभी
नकारात्मक सोच
का होगा एक
दिन पवित्र
हृदयों
से सदा के लिए प्रस्थान, इसी धरा
से पुनः जन्म लेंगे छायादार
वृक्ष महान - -

* *
- - शांतनु सान्याल
 

28 नवंबर, 2020

स्व - संधान की ओर - -

न जाने कितने सालों से स्वयं के संग
कर रहा हूँ निर्वाह, फिर भी ख़ुद
से हूँ अनभिज्ञ, आदमक़द
आईना बन चली है
दोपहर की
धूप,
आईना की परछाई से ख़ुद को हटा कर
मैं देखता हूँ, दीवार घड़ी की ओर,
अब उसके माथे से चहचाती
चिड़िया बाहर नहीं
निकलती,
शायद
वो
मर चुकी है, रूपकथाओं में लोग मर के
तारे हो जाते हैं, शब्दों के आकाश
में कहीं मिल जाए उसका
ठिकाना, किताबी
जिल्दों की
तरह,
लोग भी उतर जाते हैं अगले स्टेशन में
चुपचाप, हम बेवजह खोजते हैं,
पुस्तक के पृष्ठों में कहीं
उनका ग़लत पता,
डायरी के
पृष्ठों
में, कहीं रहा करता था, एक मयूर पंख,
कई बार उसे उलट पलट के देखा,
वो जैसा था वैसा ही रहा,
लेकिन कुछ दिनों से
है वो लापता,
कहते हैं
लोग,
कि दूरत्व अपनापन बढ़ा जाती है इस
लिए, निर्वासन का रास्ता चुना है
मैंने, अपने अस्तित्व से
द्वीपान्तर, तिमिर
से उद्भासन की
ओर, रूप -
कथा
से
निकल कर, धूसर धरातल की विषम
घाटियों के मध्य, आत्म - संधान
की ओर - -

* *
- - शांतनु सान्याल    

अप्रत्याशित बरसात - -

परिश्रांत क़दमों से, हर रात मैं लौट
आता हूँ, उसी पुल के पास,
जिसके नीचे जमी
रहती है, मेघ
की तरह
नींद,
कुछ पुनर्जन्म की अद्भुत सी प्यास।
मैं बैठता हूँ उस पल्लव विहीन
देवदारु के नीचे, एकटक
देखता हूँ, आकाश -
पार का महा -
समारोह,
उस
रौशनी की भीड़ में तलाशता हूँ ओस
का जन्म स्थान, ह्रदय परतों
में कहीं गिरती हैं, बूंद बूंद,
न जाने किसके पलकों
से टूट कर रश्मि -
कण, उन्ही
अमूल्य
क्षणों
में जीवन पाता है, अनगिनत चाहों
से अवसान। वो कहीं परोक्ष
रूप से रहता है तुम्हीं में
शामिल, अदृश्य
प्रेम की तरह
उभरता
है
अक्सर, उभार लेता है सहसा डूबने
से पहले, तुम्हारे अंतरतम में
कहीं होता है वो घनीभूत
अमर प्रणय की तरह,
चुपचाप आता है
मध्यरात
में
ईशानकोण में कहीं, बरसा जाता है
ख़ुद को उम्मीद की ज़मीं
सूखने से
पहले।

* *
- - शांतनु सान्याल  
 




सिमटे हुए मधुमास - -

निष्पलक देखता रहा मैं, जलता बुझता
रहा, कल रात भर, निर्मेघ आकाश,
अर्धोष्ण तंदूरों में, कहीं सो से
गए, सिमटे  हुए मधुमास,
न जाने कौन शख़्स
था, कुछ उजला
कुछ छुपा
हुआ,
बांटता नज़र आया, सुनसान सड़क में
रोटियों के शक्ल में झरता हुआ
अमलतास, धुंध की चादर
ओढ़े सो रहा है सारा
शहर किसी
हिमशैल
के
नीचे, कांपते से हैं आधीरात के उनींदे
ख़्वाब, काश मिल जाता, उन्हें भी
नीम गर्म कोना, बंद आँखों
के आसपास, उस तंदूर
की राख में हैं कुछ
अपरिभाषित
पलों का
हिसाब,
जो
सुबह की रौशनी में बन न सकेंगे - -
अख़बारों के सुर्ख़ उन्वान, कुछ
प्रश्न बुझ जाते हैं अपने
आप, कोई रुक कर
नहीं देगा उनका  
जवाब,
सभी
दौड़ चले हैं ज़िन्दगी की प्रतियोगिता
में, किसी के पास नहीं है पल
भर का अवकाश, अर्धोष्ण
तंदूरों में, कहीं सो से
गए, सिमटे हुए
मधुमास - -

* *
- - शांतनु सान्याल

 

27 नवंबर, 2020

असंभव कुछ भी नहीं - -

खो जाते हैं बहुत कुछ सुबह से रात,
खो गए न जाने कितने जकड़े
हुए हाथ, गुम हो जाते हैं
अनेकों प्रथम प्रेम
में टूटे हुए मन,
छूट जाते
हैं न
जाने कितने ही आपन जन, फिर -
भी ज़िन्दगी रूकती नहीं, उसी
बिंदु से करती है वो नई
शुरुआत।  मील के
पत्थर कभी
अंतिम
नहीं होते, उस गहन अंधकार में
भी, अंतर्मन अपना पथ ढूंढ
ही लेता है, जहाँ तुमने
छोड़ा था मेरा हाथ।
अभी नभ में
है मेघों
का
राज, किसे ख़बर, कुछ ही पलों
में सोनाली धूप, अपना पंख
फैला जाए, कदाचित
मिलना बिछुड़ना
भी है किसी
तयशुदा
शर्त
का भूमिगत हिस्सा, मुमकिन
है कि आख़री वक़्त, अदृश्य
बाज़ीगर, पुनः तुमसे,
मुझे एक बार
मिला
जाए।

* *
- - शांतनु सान्याल

     
 

स्फटिक जल - -

ह्रदय के आलोक से खोजता हूँ
मैं, कुहासे में गुम ज़िन्दगी
को, लौट ही आएगा,
वो इक दिन इस
जर्जर, अन्तः
स्थल में,
सुख
की तितलियाँ, नीहार बिंदुओं
में खोजती हैं, घर अपना,
सूरज उगते ही सब
कुछ है स्फटिक
जल, क्या
असली
और
क्या सपना, कितना भी क्यों
न कर लें संचय, अंतिम
प्रहर, कुछ भी नहीं
रहता है, अपने
दोनों करतल
में। उस
एक
बिंदु जल में है सप्त सिन्धुओं
की गहराई, जो जीवन को
जीत गया वही समझ
लो सर्व सीमा पार
हुआ, इस
सार में
है
पृथ्वी की अंतर ज्वाला इन्हीं
शब्दों में है कहीं, शाश्वत
प्रणय की परछाई,
एक बिंदु जल
में है सप्त
सिन्धुओं
की
गहराई। सम्मुख मेरे है खुला
हुआ प्रवेश द्वार, उतरें
सभी छद्मावरण, अब
हूँ मैं, एक निर्वस्त्र
निःसंकोच
शिशु !
तुम
हो फिर आतुर पुनर्ग्रहण के -
लिए, गर्भ गृह के उस
पार, सम्मोहित
सा है देख
जिसे
सारा त्रिभुवन, उद्वेलित सा
है जीवन पारावार।

* *
- - शांतनु सान्याल


इस पल में जी लें - -

नदी हर मोड़ पर ख़ुद को मोड़ लेती
है, कभी इस किनारे लहलहाते
धान के खेत, कभी उस
किनारे रेतों के देश,
छोड़ जाती है।
हम बढ़ते
जाते
हैं हर पल नवीनता की ओर, जिसका
कोई भी सीमान्त नहीं, स्वप्न
हो या सत्यानुभूति, सिर्फ़
इस पल में है कहीं
सभी समाहित,
शून्य
के सिवा कुछ भी इसके उपरांत नहीं।
ये सही है, कि मैं घिरा हुआ हूँ
सघन मेघों के हाथ, ये
न ही बरसेंगे, न ही
तूफ़ान को देंगे
निमंत्रण,
कुछ
प्रहरों का है आतंक, सूरज डूबते ही -
ये क्रमशः पा जाएंगे किसी
चित्रकार का आमंत्रण।
आस्था की सतह
होती है बहुत
ही नाज़ुक
टूटने
में
एक पल है काफी, जोड़ने में उम्र ही
न गुज़र जाए, अतीत के कोहरे
में जो खो गया सो गया,
उसे ढूंढने में कहीं,
वर्तमान हमें ही
न बिसर
जाए।

* *
- - शांतनु सान्याल  
 

26 नवंबर, 2020

गतिशील जीवन - -

कुछ वृत्तांत के नहीं होते उपसंहार,
वास्तविकता के आगे जीवन -
कथा हार जाती है हर
बार, कोई रुका
नहीं रहता
किसी
के
लिए, बस स्मृति जम कर बनाती हैं
हिम युग का संसार, कुछ लगाव
उभर पाते ही नहीं उष्ण
चाय की प्याली से,
उंगलियों में
रहते हैं
सिर्फ
चिपचिपाहट के अहसास, बिस्कुट के
रंग का सूरज, डूब के तलाशता
है नयी सुबह, नदी के उस
पार, सभी लोग लौट
जाएंगे अपने
अपने
घर,
धुआं भी जा मिलेगा किसी और धुएं के  
साथ, नदी के सीने में क्या रहस्य है
ये वही जाने, मंदिर के अहाते,
बूढ़े बरगद में नहीं रुकता
कभी, पक्षियों का
कोलाहल -
भरा
बाज़ार, प्राचीन देवालय का दीया बुझ
के भी जलता रहता है रात भर,
दिवानिशि के अनुबंध में
बंधा रहता है जीवन
का सफ़र, कहाँ
थमता है
इस
जग में प्राणों का विनिमय, सपनों का
कारोबार - -

* *
- - शांतनु सान्याल  
 
 



शुक्रिया उधार रहा - -

खिड़की के उस पार हो तुम, इस
पार है केवल कांच पर तैरता
विश्वास, दीर्घ यामिनी
है गहराती हुई कोई
नहीं यहाँ, सिवा
मैं और दीर्घ
निःश्वास,
वक़्त
के शाखों से पत्ते झर चले, मेल  
जोल कम हो चली है, वक़्त
भी कुछ बूढ़ा चला है,
डायरी के पृष्ठों
में दबा हुआ
गुलाब
ने
देखा है स्मृतियों का तिल तिल -
मरना, अंधेरे में न जाने
कौन है जो अल्बम
की दुकान
लगा
चला है, खंड विखंडों में जीवन
का बिखराव रुकता नहीं,
ख़्वाब एक टूटा हुआ
आईना है हर
प्रश्न का
उत्तर
देता नहीं, कोहरे में गुमशुदा सी
है अहसासों से बड़ी वो नेह
की नदी, उस पार कोई
खड़ा भी है या नहीं,
कहना है बहुत
कठिन, ये
कौन
है अदृश्य नाविक, हाथ थामे मुझे
पार कर गया, शुक्रिया कहें
तो किस से, उसकी
छुअन के सिवा
अब कुछ
भी
दिखाई देता नहीं, ख़्वाब एक टूटा
हुआ आईना है, हर एक प्रश्न
का उत्तर देता
नहीं।

* *
- - शांतनु सान्याल


सजल अनुरोध - -

हो सके तो एक पत्र आज लिखना, सभी
खो जाते हैं, समय के स्रोत में, आदिम
नदी, जरा व्याधि, सुख दुःख  
अपनी गहराइयों में ले
कर, मुहाने में कहीं
करती है पूर्ण
समर्पण,
पुनः  
उन पहाड़ियों में होगी बरसात, फिर - -
अनाम फूलों की, कोहरे से होगी
इत्र में डूबी बात, तुम अभ्र
की बूंदों से, कुछ दिल
के राज़ लिखना,
हो सके तो
एक पत्र
आज
लिखना। हालांकि, मेरा कोई स्थायी
घर नहीं, चारों तरफ़ हैं उन्मुक्त
वातायन, केवल यायावर
मेघ जानते हैं, मेरा
ठिकाना, मेरी
दुनिया का
कोई
विमुग्ध दर नहीं, जो भिगो दे अंतर
के मरुप्रान्तर को, कुछ झरनों
की सजल आवाज़ लिखना,
हो सके, तो एक पत्र,
ज़रूर आज
लिखना।
हर
तरफ़ है यहाँ एक अजीब सी उदासी,
हर कोई जी रहा है तनहा, अपने
ही दायरे में, जो मृत सुरों
में भर जाए जीवंत
ताल छंद, ऐसा
कोई सांस
लेता,
मीठे लफ़्ज़ों में ढला, साज़ लिखना, -
हो सके तो सुरभित कोई पत्र
आज लिखना - -

* *
- - शांतनु सान्याल

25 नवंबर, 2020

उम्मीद की नीलाग्नि - -

अनेक सभ्यताओं ने उत्थान - पतन
देखा, अनेक राजाओं के मुकुट
उतारे गए, कितने ही
नदियों के तट
बदल गए,
कितने
ही महासिंधु मरुस्थलों में तब्दील हो
गए, निःसृत अंधकार में फिर
भी उम्मीद की नीलाग्नि
जलती रही, समय
के अनुरूप ये
जीवन
हर
हाल में बढ़ता ही जाता है, हर जन्म
में, कहीं न कहीं पुनर्मिलन की
आस रहे, महा जल प्लावन
हो या अग्नि प्रलय,
पुनरागमन के  
रास्ते पर
चिर -
परिचित मधुमास रहे, अनगिनत
बार सूर्य का रथ गुज़रा, नील -
नद से हो कर, सुदूर
अमेजन तट
तक,
वोल्गा के विसर्जन से उभर कर - -
गंगा के वक्ष स्थल तक,
पृथ्वी के हर एक
बिंदु में कहीं
न कहीं
एक
ही नितांत अंतरंग पलों का राज रहा,
बाक़ी चाबीविहीन सदियों से
इतिहास का जंग -
लगा, बंद
दराज
रहा, केवल अंतरंग पलों का राज - -
रहा।
* *
- - शांतनु सान्याल







परम सत्य - -

मृत्यु, लघु कथा से अधिक कुछ
नहीं, जीवित रहना ही है
उपन्यास, कई पृष्ठों
में लिखी गई ये
ज़िन्दगी,
फिर
भी अनबुझ ही रही, तेरी मेरी ये
सदियों की प्यास, वो तृष्णा
जो ले आती है पुनर्जन्म
नदी के तीर, मुझे
बारम्बार,
वही
ये जगह है, जहाँ आकाश लुटा
देता है, बिहान से पहले,
अमूल्य नक्षत्रों का
चंद्र हार, इसी
उपहार
के
मध्य तुम हो अर्ध सुप्त से कहीं
फूल वृन्तों में समाहित, वो
प्रेम है या अनहद कोई
उपासना, कदाचित,
कुछ अनुभूति
रहते है
सदैव
अपरिभाषित, गंध कोषों में आ
मिलते हैं वो सभी स्रोत जो
नयन बिंदुओं से हैं
प्रवाहित, सूर्य
की प्रथम
किरण
के
तट में कहीं रहता है वो परम
सत्य, अधखुली पंखुरियों
में शायित।

* *
- - शांतनु सान्याल

ऐतिहासिक चरित्र - -

इस शीतकाल के मदिर रात में
न जाने कितने दृश्यों के
नागपाश खुल के
पुनः बिखरते  
रहे, प्रस्तर
युगों
से ले कर आज तक इस पृथ्वी
के सीने में, न जाने कितने
हलचल उभरे, कितने
अग्नि पर्वतों ने
जन्म
लिया, कितने मोहपाश जलते
बुझते रहे, आज भी उन्हीं
दृश्यों की होती है
पुनरावृत्ति,
वही
अदृश्य आदिम गुफाओं के - -
शैल चित्रों से उतरते हैं
हिंस्र परछाइयां,
करते हैं
नगर
भ्रमण, महापुरुषों की उक्तियाँ
उभरी हुई हैं, हर एक मोड़
पर, उसी पुरातन
कोलाहल में
दब कर
कहीं
रह
जाती हैं अनजानी चीखों की -
गहराइयां, आख़री पहर पड़े
रहते हैं, बंद कमरों में
निष्प्राण से कुछ
चाँदनी के
क़तरे,
कुछ
ज़बरन बुझाए गए सिगरेट के
टुकड़े, कुछ कांच चुभे
रक्तिम पांवों के
अपरिचित
निशान,
लौट
जाती है ठहरी हुई बर्बर लहरों
की आदिम सेना, भोर में
अब सभी चेहरे हैं
ओस में धुले
तुलसी
पत्र,
अब हैं वो सभी हमारी संस्कृति
के अविभावक, ऐतिहासिक
हैं निःसंदेह, शैल चित्रों
के सभी चरित्र - -

* *
- - शांतनु सान्याल

कुछ शब्दहीन पल - -

कितना भी चीत्कार करो, ख़ुद को
निर्दोष प्रमाण करना, हर
वक़्त सहज नहीं,
कभी कभी
मौन
हो
जाना चाहिए, सिर्फ़ रिश्ता तोड़ना
ही मोहभंग नहीं, साथ रह
कर भी लोग, बड़ी
ख़ूबसूरती से
दूरत्व
को
निभा जाते हैं, कभी कभी ख़ुद के
नज़दीक हमें आ जाना
चाहिए। मेरा दर्द
ओ ग़म, सिर्फ़
मुझ तक
रहे
सिमित, ज़माने के लिए तो बस
ये एक कहानी है, दोषमुक्त
यहाँ कोई नहीं, परिपूर्ण
प्रेम की कथा केवल
किताबों की
ज़बानी
है,
यहाँ कोई किसी को नहीं सजाता,
ये जीने की विधा ख़ुद के
अंदर से बाहर आना
चाहिए। मैंने देखा
है इसी दुनिया
के मंच
पर
अपनों का अट्टहास, सीढ़ियों से -
नेपथ्य से जब कभी उतरा
विदूषक, उसकी आँखों
में थी नमी और
चेहरे पर
डूबने
का
अहसास, कोई किसी के लिए नहीं
सोचता, वक़्त रहते ख़्वाबों
से उभर जाना चाहिए,
अवसाद का सफ़र
न ले जाए
अंध
गुफाओं में कहीं, अंधकार घिरने से
पहले उजाले में कहीं ठहर
जाना चाहिए, कभी -
कभी, थोड़ा सा
मौन हो -
जाना
चाहिए - -

* *
- - शांतनु सान्याल
 

   
 
 



24 नवंबर, 2020

बदलाव ज़रूरी है - -

मिट्टी से गढ़ा अस्तित्व, चंद
काग़ज़ों में यहाँ बिक
जाए, ज़िन्दगी
कभी गुम
होती
नहीं, कि उसे खोजा जाए, वो
सिर्फ़ हाथ बदल होती है,
ये दिगर बात है कि
कोई, मेरे माथे
पर बद -
दुआ
की इबारत लिख जाए, कुछ
लोग हर मोड़ पर कुछ
नया तलाश करने
में रहते हैं
व्यस्त,
कुछ
मेरी तरह होते हैं पुरातन से -
आसक्त, ज़रूरी नहीं
कोई एक लम्बे
सफ़र के
लिए
मेरे हमराह टिक जाए, तुम
अपने अंदर ही अंदर
चाहे जितना भी
बिखरो रोज़,
कोई
नहीं करेगा तुम्हारी खोज - -
दरअसल, ये ग़लत -
फ़हमी है कि लोग
याद नहीं
करते,
प्रयोजन शेष तो किस बात की
है मुलाक़ात, तुम चाहो तो
करो याद, कदाचित
चलते चलते वो
शख़्स तुम्हें
दिख
जाए, मैं कभी भी नहीं बदला -
हाँ, वक़्त के साथ थोड़ा
अपडेट हो चला हूँ,
कि फिर कोई
न मेरे माथे
पर,
अस्वीकृत कविता की अनबूझ
पंक्तियाँ लिख जाए - -

* *
- - शांतनु सान्याल  
 

 

 





स्व - अनावरण - -

कोई किसी को बांध के नहीं रखता
बल्कि अपने साथ बांध के ले
जाता है, देह पड़ी रहती
है पृथ्वी पर और
प्राण करता
है नभ
पथ
का विचरण, निःश्वास की गहराई
में डूब जाते हैं, सभी आलोक
सेतु, ज़िन्दगी गिनती
है, अंधेरे में मील
के पत्थर,
अबूझ
प्रेम
भटकता है उम्र भर सीने में दबाए
अपठनीय विवरण, प्राण
करता है, नभ पथ
का विचरण।
ज़रा सा
छुअन
बिखरा जाएगा धूल, भीग जाएंगे
असमय, बेवजह आँखों के
उपकूल, मूक ही रहने
दो अतीत के सभी
दर्पण, प्राण
करता है
नभ
पथ का विचरण। कोई किसी को
नहीं चाहता भूलना, वक़्त
भूला देता है, कोई
नहीं चाहता
किसी
को
हराना, भाग्य छीन लेता है, वो
कौन था, क्यों टूट के गिरा,
किधर खो गया, सभी
को रहती है बड़ी
जिज्ञासा,
लेकिन
कोई
नहीं करता, टूटे हुए नक्षत्र का -
तर्पण,  प्राण करता है
आकाश पथ का
विचरण।
मेरे
अंदर है, कोई पुरातन खण्डहर -
बारह मास लड़ता है ख़ुद
से, टूटता है, पुनः
गढ़ता है नए
शिल्प,
कोई
देखे या न देखे, वो स्वयं करता
है अपनी सृजन का भव्य
अनावरण - -

* *
- - शांतनु सान्याल  

 
 


 

23 नवंबर, 2020

अस्तित्व का रास्ता - -

झरते हुए उस पत्ते की तरह मैं
उड़ता रहा, बहुत देर तक
शून्य में, हवाओं के
हाथों में था
उतरने
का   
ठिकाना, जब हवाओं ने मेरा -
साथ छोड़ दिया, तब मैंने
ख़ुद को झील में
तैरता पाया,
अब
लहरों के हाथों में था पथरीली
किनार तक मुझे पहुँचाना,
गंत्वय पाना इतना
भी आसान
नहीं
समय स्रोत में निरंतर है बहते
जाना, मिलते हैं इस
बहाव में कुछ
कोहरे में
डूबे
पड़ाव, कुछ अंधकार में डूबते
उभरते द्वीप, कुछ नील
आलोक में जलते
बुझते सपनों
के गाँव,
कुछ
सुबह की मोती बिखेरते हुए - -
वक्षस्थल के सीप, कितने
ठौर, कितने बंदरगाह,
लेकिन सूर्यास्त
के बाद सब
की एक
ही है
ज़बान, कुछ उद्भासित कुछ नेह
के भीतर, अदृश्य मरुद्यान,
मनुष्य, आँख खुलने
से पहले ही देख
लेता है, गर्भ -
गृह के
गहन
तम से, उजालों का उद्गम - -
स्थान।

* *
- - शांतनु सान्याल  


नया आयाम - -

अंतर्मन से जो शब्द पैदा होते हैं
वो जीवन को नया आयाम
देते हैं, अंधकार केवल
है दुःख की क्षणिक
परछाई, जो
इसे
जीत ले, वो अपने आप को एक
नया नाम देते हैं, वो जीवन
को नया आयाम देते
हैं।  मेरे अंदर की
दुनिया न
जाने
कितनी बार टूटी, अनेक टुकड़ों
में बिखरी, जब मैंने अपने
आसपास देखा, तो
मैंने पाया, मेरा
अपना
बिखराव तो कुछ भी नहीं उनके
सामने, फिर भी उनकी
मुस्कान में ज़रा
भी कमी
नहीं,
कितनी सुंदरता से लोग अपनी
नकारात्मक सोच को
विराम देते हैं, वो
जीवन को
नया
आयाम देते हैं। कितने सफ़र हैं
अधूरे, कितने जज़्बात हैं
मृत नदी, कितनी
ख़्वाहिशें
दम
तोड़तीं, फिर भी अपने पैरों पर
नहीं गिरूंगा, ख़ुद को मैं
हर मोड़ पर जीवित
ही लिखूंगा, कुछ
लोग उम्र
भर
अनवरत पत्थरों को तराशते -
हुए औरों की श्रद्धा को
अंजाम देते हैं,
वो जीवन
को
नया आयाम देते हैं - - - - - - -

* *
- - शांतनु सान्याल

    

22 नवंबर, 2020

न बदलो मौलिकता - -

मुझे मेरी तरह रहने दो, न जोड़ो न
ही घटाओ, अधिक काट-छाँट
से ज़िन्दगी का नक़्शा
बिखर जाएगा,
मेरे हृदय
का
शहर है कांच से गढ़ा हुआ इसका -
कोई नगरप्राचीर नहीं क्योंकि
इसे किसी बहिः शत्रु का
डर नहीं, जो ज़ख्म
देखते हो मेरे
अस्तित्व
पर
वो केवल दैहिक हैं दो चार दिनों में
भर जाएगा, अधिक काट-छाँट
से ज़िन्दगी का नक़्शा
बिखर जाएगा।
मैं इस सभा
में नया
ज़रूर
हूँ, लेकिन अनजान नहीं, वक़्त ने
मुझे आज़माया है ज़िन्दगी -
भर, मेरे आसपास जो
अंधेरे का है जल -
प्लावन, ये
सभी हैं
विगत रातों के घनीभूत मेघ दल,
सूर्यास्त से पहले ये उफान
अपने आप यूँ ही उतर
जाएगा, अधिक
काट-छाँट से
ज़िन्दगी
का
नक़्शा बिखर जाएगा, वो चीज़ जो
इच्छा के विरुद्ध हो उसे रोका
जा सकता है कुछ लम्हों
के लिए, दीर्घस्थायी
बनाने की चाह
में सहज
नहीं
उसे रोकना, वो कोई पिघलता हुआ
चट्टान है न जाने किधर
जाएगा - -

* *
- - शांतनु सान्याल 

उड़ान से पहले - -

वही बिंदु बिंदु जीवन यापन, ईहकाल
और परकाल के मध्य, मानव
खोजता है, अलादीन का
चिराग़, एक छोटा
रास्ता, किन्तु
प्रारब्ध -
अपनी जगह है अडिग, खोलता है वो
दक्षिणी खिड़की और कहता है -
दिगंत तक पहुँचना है
अगर, तो पंख
उगाओ,
सिर्फ़
स्वप्न देखने से कोई उड़ नहीं सकता,
शून्य से ही सृष्टि का है उत्स,
प्रच्छद के आड़ में तुम
नहीं पा सकते
जीवन
का
सारांश, जानने के लिए ज़रूरी है उसी
में डूब जाओ, आईना बदल देने
से चेहरा बदल नहीं सकता,
जो है सो है, श्वेत रक्त
कणिका के दाग़
हैं अपनी
जगह,
अक्स को कोसने से क्या फ़ायदा - -
समय अक्सर मुझ से कहता
है - तुम्हारा मुख क्यों
है इतना लहर
विहीन, ग़र
उड़ना
है
तो उड़ जाओ यहाँ कोई किसी की - -
परवाह नहीं करता, उड़ने से
पहले, अपना पता छोड़
जाना - -  

* *
- - शांतनु सान्याल

 





21 नवंबर, 2020

धूसर लकीर - -

एक के बाद एक क्रमशः गुज़रते रहे,
दिन, जंग लगे सीने में चुभते
नहीं आलपिन, नदी का
वक्षस्थल, जितना
था अंतःनील,
उतना ही
क़रीब
आता रहा प्रलोभित शंख चील, उस
मेघना यवनिका के नेपथ्य में
कहीं बहती रही, उज्जवल
धूप की नदी, सुख
की अभिलाष
में हमने
बुने
दुःख के जाल अंतहीन, चंद्रसुधा की
आस में समेटते रहे अमावस
का अंधविष, कुछ और
थोड़ा कुछ और
अधिक एक
अनबुझ
प्यास
बढ़ता रहा अहर्निश, दिन बदलते रहे,
नए नाज़ुक भूगर्भ में बढ़ता रहा
जड़ों का जाल, देह में जमते
रहे छद्मरूपी छाल, हर
चीज़ थी रंगीन
फिर भी
रातें
निद्रा विहीन, माटी से जमें रहने की
प्रतिश्रुति हम भूलते गए, हमने
ऊंचाई से बांधा था रिश्ता,
चाँद तारों से की थी
मित्रता, लेकिन
तूफ़ान के
आगे
कोई नहीं टिकता, उसकी आँखों में
सिर्फ़ होता है अदृश्य अहंकार
का दमन, वो गुज़रता
है अपनी शर्तों पर,
धूलिसात कर
जाता है
सब
कुछ, विशाल वट वृक्ष उखड़ कर
पड़ा रहता है उपेक्षित नदी
तट पर बहुत एकाकी
और संगहीन,
धूप छाँव
के
मध्य होती है एक धूसर लकीर - -
बेहद महीन - -

* *
- शांतनु सान्याल  
   
 



 

लौटना नहीं आसान - -

सोचने से क्या वापसी होती है,
एक दिन अचानक संधि -
बेला में जब क्लांत
दिन, रात्रि से
मिलता
हो,
अचानक हाथों में लिए कुछ -
अरण्य पुष्प, और वक़्त
के कांटों से बिंधा
शरीर, व धूल  
से सने
पांव
ले कर दहलीज़ में पहुँचता हूँ,
और ज़िन्दगी अपने शीर्ष
पर जीर्णशीर्ण आँचल
को खींचते हुए
पूछती है -
इतने
दिन कहाँ थे, उसके हाथों की
साँझ बाती में लौ अभी
तक है ज़िंदा, उस
धूसर आँगन
के सीने
में
बिखरे हुए हैं नीबू के कुछ फूल,
ऊँचे दरख़्तों की परछाइयों
में तलाश करता हूँ
मैं, कुछ ओस
में भीगे हुए
चाँदनी
के
टुकड़े, बांस वन से उतरती हुई
रात, मद्धम रौशनी में
ज़िन्दगी से जी भर
की मुलाक़ात,
और ढेर
सारी
अनकही बात, किन्तु सोचने -
से क्या वापसी होती है - -

* *
- - शांतनु सान्याल

 

20 नवंबर, 2020

विशुद्धता के परे - -


संभवतः उसने नहीं चाहा था देखना
मेरा अंतर्मुखी रूप समय के
पूर्व, दरअसल, इंसान
जिस से बहुत प्यार
करता है उसे
हर हाल
में
स्वीकार करता है, उसके लिए क्या
आईना और क्या अंध कूप,
उसने नहीं चाहा था
देखना मेरा
अंतर्मुखी
रूप।
कदाचित उसे मालूम था कुंदन का
भुरभुरापन, इसलिए उसने
मिश्रित स्वर्ण का किया
चयन, कोई भी
नहीं जगत
में शत -
प्रतिशत परिपूर्ण, हर व्यक्ति को -
चाहिए निखरने के लिए, कुछ
सर्दियों की नाज़ुक धूप,
उसने नहीं चाहा था
देखना मेरा
अंतर्मुखी
रूप।
मेरे चरित्र की सभी गहराइयों को
उसने आत्मसात किया, इसी
बिंदु से, दैहिक मोह का
सांकल टूटा और
उपासना का
सूत्रपात
हुआ,
जो अंतहीन रहस्य अपने आप में
है समेटे हुए वही शास्वत
प्रेम है अंतरिक्ष के
स्वरुप, उसने
नहीं चाहा
था
देखना मेरा अंतर्मुखी रूप। तब -
वो पंच धातु का पिंजरा
ख़ुद ही खोल देता है
कपाट महाशून्य
की ओर किन्तु
प्राण पंछी
सिर्फ़
विरक्त नज़रों से देखता है बहते
हुए अंतरिक्ष को, वो बांध
चुका है, अपने पांवों
में अमर प्रणय
का लौह -
स्तूप,
उसने नहीं चाहा था देखना मेरा -
अंतर्मुखी रूप।

* *
- - शांतनु सान्याल   

 


 

परिभाषा विहीन - -

दो बूंदों का वो शब्द जो निगाहों
से  उभर कर पलकों में खो
जाए, तुम पूछते हो
उसका पता, ये
जान के भी
कि वो है,
लापता,
सर्द रातों में, तारों की चादर ओढ़  
कर, वो फुटपाथ में कहीं सो
जाए, उस दो बून्द में  
है कहीं, नवांकुर
का प्रसवन
शामिल,
क्रूर
समय के हाथों, वही दिव्य शरीर -
एक दिन वृद्धाश्रम का हो
जाए, कैसे समझाएं
दर्द की परिभाषा,
जिसे सिर्फ़
अनुभव
किया
जा सकता है, ये वो बूंद हैं जो - -
पत्थरों में भी गिरे तो कुछ
पल सही धड़कने का
बीज बो जाए,  
इन बूंदों
की वो
तासीर है कि बहा ले जाए तमाम
साम्राज्य, कितनी कोशिशें
क्यों न कर लें, दर्द के
सहभागी लौटते
नहीं, चाहे
वक़्त
उन्हें कितना भी बुलाए, वो शब्द
निगाहों से  उभर कर पलकों
में खो जाए - -

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 

19 नवंबर, 2020

आतिश ए दायरा - -

कहीं न कहीं आज भी उसके दिल में
है अफ़सोस ज़रा, वो चाह कर
भी मुझसे जुदा हो न
सका, कहीं न
कहीं, मैं
भी भीड़ में तन्हा ही रहा, चाह कर
भी किसी से जुड़ न सका,
इक अजीब सा रहा,
यूँ सिलसिला
दरमियां
अपने, मुझ से ताउम्र बुत परस्तिश
न गई, और वो भी पत्थर से
निकल, कभी ख़ुदा
हो न सका,
इक -
तरसीम ए ख़्वाब या इश्क़ हक़ीक़ी,
न जाने क्या थी, उसकी
तिलस्मी चाहत,
लाख चाहा,
मगर
उस मरमोज़, आतिश ए दायरा के
बाहर, कभी निकल ही न
सका, मैं भी भीड़ में 
तन्हा ही रहा, 
चाह कर
भी 
किसी से जुड़ न सका।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

शब्दों के परे - -

उस तमिस्रा, अंध रात्रि में, हाथों में -
थामे अजर लावा पात्र, हमने
पाया था, शब्दों के परे
का वो आकाश,
जहाँ जीवन
था पूर्ण
निर्लिप्त, सुख दुःख के पाशों से मुक्त,
सभी उत्कण्ठाओं से अवकाश, उस
चन्द्र विहीन उल्का पात के
नभ में, हमने देखा
था परस्पर
का वो
श्वासरोधी मिलन, नव जागरण का -
अग्निचूर्णक उदय, हिमयुग का
पुनर्विगलन, उस महाकाश
में उभरे थे, दिव्य
मन्त्रों के
प्रभा -
मंडल "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु
निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चित् दुःखभाग् -
भवेत्।।" इन से
परावर्तित
किरणों
के
सिवा कुछ भी न था हमारे पास, हमने
पाया था, शब्दों के परे का
वो नील निःसीम
आकाश।

* *
- - शांतनु सान्याल


 
 



अधोगामी स्रोत - -

आज भी उत्तरी आकाश में, पुरातन
सप्तर्षिमंडल, शून्य में लिखते
हैं सनातनी गान, आज
भी बर्फ़ के स्तूप
में जीवन
का
कहीं न कहीं रहता है दबा हुआ मूल -
स्थान, वृष्टि का आदिम गंध,
मुमूर्षु नदी को मरने नहीं
देता, दवाओं को
अदृश्य हटा
कर
दुआएं दे जाती हैं जीवन को प्रतिदान,
मृत्यु अपरिहार्य है अपनी जगह,
ये सोच के क्यों करें रतजगा,
ग़र उसे आना ही है, तो
वो आएगा, हर हाल
में अदृश्य किसी
अनाहूत -
निर्मेघ
वर्षा
के समान, न कोई दस्तक, न अग्र -
दूत, न अशरीर कोई, न ही मूर्त
अवधूत, आसक्ति सदा से
है अधोगामी, तिर्यक -
गुणन का नहीं
कोई यहाँ
बखान,
सिर्फ़, समय स्रोत में है बहते जाना, -
भूल के सभी अप्राप्त अनुदान,
सप्तर्षिमंडल, शून्य में
लिखते हैं सतत
सनातनी
गान।

* *
- - शांतनु सान्याल


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