मंज़िल का पता मालूम नहीं
दिल में कुछ आरज़ू
रहने दें, निगाहों
से लेन देन
किया
जाए बा लफ्ज़ गुफ़्तगू रहने दें,
हासिए से निकल कर कभी
तेरे ग़ज़ल का उन्वान
तो बनूं, भीगी
पलकों के
किनारे,
किनारे ख़्वाबीदा जुस्तजू रहने दें,
आइने की अपनी है मजबूरी सच
को ज़ाहिर ए आम करना,
ताहम अक्स मेरा जैसा
भी हो, अपने दिल
में हूबहू
रहने
दें,
मसनूअ इंसानी, अतर की उमर
होती है बहोत ही मुख़्तसर,
रूह की बेइंतहा गहराइयों
में, ख़ालिस इश्क़ की
ख़ुश्बू रहने
दें,
ज़रा सी देर अपने रूबरू रहने दें ।
* *
- - शांतनु सान्याल
30 मार्च, 2023
29 मार्च, 2023
अपना अपना कयास - -
शून्यता की यात्रा अनंत
है एक गहनता का
एहसास, कभी
अनगिनत
हो कर
भी
कुछ भी नहीं अपने पास,
जीवन वृत्त घूमता रहता
है, अपने आप में
अंतर्लीन,
प्रणय
खोह
से हो कर हृदय खोजता
है हलकी
उजास,
ऋतुचक्र उतार लेता है
ऊंचे दरख़्तों के
हरित पोशाक,
झुर्रियों के
उभरते
ही,
चेहरे से रूठ जाता है
मधुमास,
जनस्रोत में रह कर भी
आदमी होता है
बेहद निःसंग,
दरअसल
अपने
आप से ही नहीं मिलता
हमें अवकाश,
कौन किस का दुःख दर्द
बांटे सभी हैं व्यस्त
प्रतियोगी, इक
हल्की से
लकीर
है
धूप छांव के बीच जीने की
आस,
* *
- - शांतनु सान्याल
27 मार्च, 2023
गुमशुदा ख़्वाब - -
मासूम ख़्वाब कोई तारों भरी रात
में तन्हा करता है सफ़र,
जुगनुओं के देश से
हो कर सुबह की
ओर जाती है
रहगुज़र,
सरकते जा रहे हैं पीछे अनगिनत
नदी, पहाड़, नंगे दरख़्त, गहन
अंतरिक्ष में, ज़िन्दगी
तलाशती है जाने
किस का
घर,
कितने ही ख़्वाब सुदूर गामी रेल
के साथ हो जाते हैं लापता,
असंख्य तारक पुञ्ज,
टूट कर दिगंत
रेखा में जाते
हैं बिखर,
परित्यक्त अंधी घाटियों का, कोई
भी नहीं करता अन्वेषण, वक़्त
के साथ, कुछ अस्तित्व
भी हो जाते हैं
अवांछित
बंजर,
आखेटक रात्रि निरंतर खोजती है,
आसान भेद्य शिकार को,
अंतिम रेल के जाने
के बाद, निःशब्द
है प्लेटफार्म
की नज़र,
* *
- - शांतनु सान्याल
26 मार्च, 2023
अभी अभी - -
इस एहसास में, कितने दीये जल उठे,
गुज़रे हैं वो बहुत क़रीब से अभी अभी,
देखा है टूटते तारों, को बहुत दूर से -
मिले हैं वो बड़े नसीब से अभी अभी,
महके हैं क़फ़स के दर ओ दीवार - -
आए कोई पार दहलीज़ से अभी अभी,
फिर सजाए कोई ख़्वाब आँखों में - -
देखा है उसने, नज़दीक से अभी अभी,
बहुत मुश्किल था, आह भरना मेरा -
मिले है हम ज़िन्दगी से, अभी अभी,
हर फूल लगे ख़ूबसूरत दिल की तरह,
भरा है जिस्म, ताज़गी से अभी अभी,
लबरेज़ हैं, ख्वाहिशात छलकने को - -
राहत मिली है तिश्नगी से अभी अभी ,
बहकते हैं, क़दम होश न हो जाए गुम,
मिले हैं जान ए अज़ीज़ से अभी अभी।
- - शांतनु सान्याल
गुज़रे हैं वो बहुत क़रीब से अभी अभी,
देखा है टूटते तारों, को बहुत दूर से -
मिले हैं वो बड़े नसीब से अभी अभी,
महके हैं क़फ़स के दर ओ दीवार - -
आए कोई पार दहलीज़ से अभी अभी,
फिर सजाए कोई ख़्वाब आँखों में - -
देखा है उसने, नज़दीक से अभी अभी,
बहुत मुश्किल था, आह भरना मेरा -
मिले है हम ज़िन्दगी से, अभी अभी,
हर फूल लगे ख़ूबसूरत दिल की तरह,
भरा है जिस्म, ताज़गी से अभी अभी,
लबरेज़ हैं, ख्वाहिशात छलकने को - -
राहत मिली है तिश्नगी से अभी अभी ,
बहकते हैं, क़दम होश न हो जाए गुम,
मिले हैं जान ए अज़ीज़ से अभी अभी।
- - शांतनु सान्याल
25 मार्च, 2023
आत्म परिचय
पथिक कोई देर तक तकता रहा शून्य आकाश,
निहारिकाओं का अभिसार, उल्काओं का
पतन, सुरसरी का बिखराव, स्वजनों
का क्रंदन, छूटता रहा पैतृक
वास स्थान, नभ पथ
के मेघ दे न सके
शीतलता,
आत्म तृषा लिए वो एकाकी यात्री करता रहा -
विचरण, मायावी रात्रि मुक्त कर न
सकी उसे, या स्वयं ही जुड़ता
गया किसी इंद्रजालिक
सम्मोहन में
अविराम,
निश्चल देह पड़ा है जैसे वसुंधरा के गोद में, व
जीवन भर रहा यायावर, भटकता रहा
बबूल वन, मरुस्थल पार,
किसी अविदित
मरूद्यान
की खोज या आत्म प्रवंचना, सम्पूर्ण रात्रि मन
करता रहा सत्य अनुसंधान, सिर्फ़
कर न सका प्रतीक्षारत
अंतर्मन की वो
तलाश,
अपूर्ण थी, अपूर्ण ही रही हृदय की वो गहन प्यास।
- शांतनु सान्याल
न जाने कौन था वो - -
मोम की तरह उन पिघलते लम्हों में,
कोई साया जिस्म ओ जां तर कर
गया, कभी सीने से लग
कभी रूह से मिल
कर, न जाने
वो किधर
गया,
उसकी बदन की ख़ुश्बू थी या मुकम्मल
संदली ज़िन्दगी, सब कुछ मेरा -
वो पलक झपकते; यूँ ही
ले गया, अभी अभी
था सांसों के
दरमियाँ,
और अभी, ज़िन्दगी मेरी अपने साथ ले
गया, वो जाने कौन था मसीहा
कोई साया जिस्म ओ जां तर कर
गया, कभी सीने से लग
कभी रूह से मिल
कर, न जाने
वो किधर
गया,
उसकी बदन की ख़ुश्बू थी या मुकम्मल
संदली ज़िन्दगी, सब कुछ मेरा -
वो पलक झपकते; यूँ ही
ले गया, अभी अभी
था सांसों के
दरमियाँ,
और अभी, ज़िन्दगी मेरी अपने साथ ले
गया, वो जाने कौन था मसीहा
या तूफ़ानी कोई शख्सियत,
सलीब से उतार कर
वजूद मेरा;
तपते
अंगारों पर बड़ी ख़ूबसूरती से रख गया - - -
- - शांतनु सान्याल
सलीब से उतार कर
वजूद मेरा;
तपते
अंगारों पर बड़ी ख़ूबसूरती से रख गया - - -
- - शांतनु सान्याल
आत्म खोज
ये अहम् ही है जो अदृश्य दूरियों की लकीरें
खींच जाता है हमारे मध्य, और
निष्क्रिय ध्रुव की तरह हम
अंतिम बिन्दुओं में
रुके से रह
जाते
हैं,
कभी इस ठहराव से बाहर निकल कर ज़रा
देखें, किसी की प्रसंसा में स्वयं को
केवल बुलबुला समझे, और
सुगंध की तरह बिखर
कर देखें, जीवन
इसी बिंदु पर
सार्थक सा
लगे है,
वो व्यक्ति जिसे लोग कहते थे बहुत ही
प्रसिद्ध, नामवर न जाने क्या क्या,
समीप से लेकिन था वो बहुत
ही एकाकी, परित्यक्त
स्वयं से हो जैसे,
यहाँ तक कि
पड़ौस भी
उसके
बारे में कोई कुछ नहीं जानता था, जब लोगों ने
देर तक द्वार खटखटाया, तब पता चला
कि उसे विदा हुए कई घंटे गुज़र
गए, नीरव सांसें, देह शिथिल,
आँखे छत तकती सी
निस्तेज, पास
पड़ी डायरी
में अपूर्ण
कविताओं की स्याही में ज़िन्दगी कुछ कह सी
गई, नीले आकाश की गहराइयों में, फिर
रौशनी का शहर साँझ ढलते सजने
लगा, कोई रुके या लौट जाये !
शून्य में झूलते तारक
अपने में हों जैसे
खोये, व्योम
अपना व्यापक शामियाना हर पल फैलाता चला,
कोई अपना आँचल ग़र फैला ही न सके
तो नियति का क्या दोष, आलोक
ने तो बिखरने की शपथ ली है,
कौन कितना अँधेरे से
मुक्त हो सका ये
तो अन्वेषण
की बात
है - - -
--- शांतनु सान्याल
खींच जाता है हमारे मध्य, और
निष्क्रिय ध्रुव की तरह हम
अंतिम बिन्दुओं में
रुके से रह
जाते
हैं,
कभी इस ठहराव से बाहर निकल कर ज़रा
देखें, किसी की प्रसंसा में स्वयं को
केवल बुलबुला समझे, और
सुगंध की तरह बिखर
कर देखें, जीवन
इसी बिंदु पर
सार्थक सा
लगे है,
वो व्यक्ति जिसे लोग कहते थे बहुत ही
प्रसिद्ध, नामवर न जाने क्या क्या,
समीप से लेकिन था वो बहुत
ही एकाकी, परित्यक्त
स्वयं से हो जैसे,
यहाँ तक कि
पड़ौस भी
उसके
बारे में कोई कुछ नहीं जानता था, जब लोगों ने
देर तक द्वार खटखटाया, तब पता चला
कि उसे विदा हुए कई घंटे गुज़र
गए, नीरव सांसें, देह शिथिल,
आँखे छत तकती सी
निस्तेज, पास
पड़ी डायरी
में अपूर्ण
कविताओं की स्याही में ज़िन्दगी कुछ कह सी
गई, नीले आकाश की गहराइयों में, फिर
रौशनी का शहर साँझ ढलते सजने
लगा, कोई रुके या लौट जाये !
शून्य में झूलते तारक
अपने में हों जैसे
खोये, व्योम
अपना व्यापक शामियाना हर पल फैलाता चला,
कोई अपना आँचल ग़र फैला ही न सके
तो नियति का क्या दोष, आलोक
ने तो बिखरने की शपथ ली है,
कौन कितना अँधेरे से
मुक्त हो सका ये
तो अन्वेषण
की बात
है - - -
--- शांतनु सान्याल
आत्म अधीर
अंतर्मन रंग डाली उसने, फिर देह पर
चाहे रंगना गुलाल अबीर,
क्षण भंगुर जीवन, चाहत बेहिसाब, न
टूटे कहीं कांच सदृश शरीर,
मकरंद मदहोश फिरे, कमनीय पलाश
छू जाय प्रेम अगन गंभीर,
गोपियाँ खोजें गली गली, राधा कृष्ण
बसे कदम कुञ्ज जमुना तीर,
पूर्ण शशि, बरसे तन मन में प्रणय सुधा,
कस्तूरी मृग सम आत्म अधीर,
- शांतनु सान्याल
24 मार्च, 2023
जीने की ख़्वाहिश - -
किस ने देखा है मृत्यु पार की दुनिया,
हज़ार सज़ाओं के साथ भी जीने
की ख़्वाहिश कभी ख़तम
नहीं होती, रास्ते
ख़ूबसूरत हों
या फिर
डरावने, ज़िंदगी को हर एक सुरंग से
गुज़रना होता है, ज़ख्मों से भरा
जिस्म ले कर सुबह की ओर
बढ़ना होता है, रात लंबी
हो या मुख़्तसर,
उजाले की
गुंजाइश
कभी कम नहीं होती, हज़ार सज़ाओं
के साथ भी जीने की ख़्वाहिश
कभी ख़तम नहीं होती ।
जज़्ब करने की
शिद्दत बढ़
जाती है
दर्द
सहते सहते, हज़ार रुकावटें रोक नहीं
पाते बहाव को, सागर तक नदी
पहुँच ही जाती है बहते बहते,
सुलगते रहते हैं जज़्बात
किसी आग्नेय गिरि
की तरह, जीने
की फ़रमाइश
कभी नम
नहीं होती, हज़ार सज़ाओं के साथ
भी जीने की ख़्वाहिश कभी
ख़तम नहीं होती ।
* *
- - शांतनु सान्याल
23 मार्च, 2023
सांसों की शायरी - -
न कोई हम सुखन, न ही राज़ दार है बाक़ी,
अगरचे कुछ है, तो फ़क़त इंतज़ार है बाक़ी,
कोई भी चेहरा उसकी जगह नहीं ले सकता,
सदियों से मुसलसल, यही ऐतबार है बाक़ी,
रेत के जज़ीरे में, दूर तक है सिर्फ़ ख़ामोशी,
ताहम उम्मीद का, सजर सायादार है बाक़ी,
आधी रात गए, बेवजह किस की है, दस्तक,
किन हाथों में, ख़्वाबों का कारोबार है बाक़ी,
जाने कौन पढ़ता है मजरूह सांसों की शायरी,
भरम ही सही शहर में इक तलबगार है बाक़ी,
* *
- - शांतनु सान्याल
नेह बूंद - -
दशकों बाद भी हिय से, वाष्प उभरता सा लगे,
खोया हुआ प्रतिबिंब आइने में संवरता सा लगे,
रास्ता जो गुज़रता है महुआ पलाश वन हो कर,
निर्झरिणी तट में कहीं, प्रणय निखरता सा लगे,
अनुपम माधुर्य था षोडशी मधुऋतु के छुअन में,
मुद्दतों बाद भी देह गंध सीने में उतरता सा लगे,
न जाने क्या बात हुई थी, उँगलियों के छुअन में,
आख़री पड़ाव में दिल का दीया सिहरता सा लगे,
अकस्मात् जी उठते हैं, डायरी के बेजान से पृष्ठ,
युवा वसंत जीवन के गहनता में उतरता सा लगे,
प्रथम प्रणय की, मधु प्रतिश्रुति कभी सूखती नहीं,
जीवन परिधि के बाहर, नेह बूंद बिखरता सा लगे,
* *
- - शांतनु सान्याल
खोया हुआ प्रतिबिंब आइने में संवरता सा लगे,
रास्ता जो गुज़रता है महुआ पलाश वन हो कर,
निर्झरिणी तट में कहीं, प्रणय निखरता सा लगे,
अनुपम माधुर्य था षोडशी मधुऋतु के छुअन में,
मुद्दतों बाद भी देह गंध सीने में उतरता सा लगे,
न जाने क्या बात हुई थी, उँगलियों के छुअन में,
आख़री पड़ाव में दिल का दीया सिहरता सा लगे,
अकस्मात् जी उठते हैं, डायरी के बेजान से पृष्ठ,
युवा वसंत जीवन के गहनता में उतरता सा लगे,
प्रथम प्रणय की, मधु प्रतिश्रुति कभी सूखती नहीं,
जीवन परिधि के बाहर, नेह बूंद बिखरता सा लगे,
* *
- - शांतनु सान्याल
22 मार्च, 2023
एकाकी यात्री - -
निःशब्द सन्यासी की तरह, उड़ते जीर्ण
पत्ते के संग, इक दिन अचानक
निरुद्देश्य निकल जाना होता
है, मध्य रात्रि में जब
सड़कें नदियों की
तरह दिखती हैं
बस, अदृश्य
लहरों
के संग बहुत दूर निकल जाना होता है,
द्वीप रुपी घर पड़ा रहता है अपनी
जगह, यशोधरा के स्वप्नों में
कहीं रह जाते हैं स्मृति के
शीशमहल, बिखरे
रहते हैं फ़र्श
पर नेह के
मोती,
निर्बंध होता है उम्र भर का सौगंध, न
कोई प्रतीक्षा न कोई पुनर्मिलन की
आस, इस इतिकथा का नायक
है आम आदमी, कोई गौतम
बुद्ध नहीं, हमेशा के लिए
उसे सब कुछ छोड़
कर अनजान
ग्रह में चले
जाना
होता है, चुपचाप, पदचिन्ह विहीन -
निर्विकार !
* *
- - शांतनु सान्याल
पत्ते के संग, इक दिन अचानक
निरुद्देश्य निकल जाना होता
है, मध्य रात्रि में जब
सड़कें नदियों की
तरह दिखती हैं
बस, अदृश्य
लहरों
के संग बहुत दूर निकल जाना होता है,
द्वीप रुपी घर पड़ा रहता है अपनी
जगह, यशोधरा के स्वप्नों में
कहीं रह जाते हैं स्मृति के
शीशमहल, बिखरे
रहते हैं फ़र्श
पर नेह के
मोती,
निर्बंध होता है उम्र भर का सौगंध, न
कोई प्रतीक्षा न कोई पुनर्मिलन की
आस, इस इतिकथा का नायक
है आम आदमी, कोई गौतम
बुद्ध नहीं, हमेशा के लिए
उसे सब कुछ छोड़
कर अनजान
ग्रह में चले
जाना
होता है, चुपचाप, पदचिन्ह विहीन -
निर्विकार !
* *
- - शांतनु सान्याल
21 मार्च, 2023
अंधा कुआं - -
दूर तक, हद ए नज़र, बस धुआं धुआं सा है,
क़रीब हैं फिर भी, दरमियानी फ़ासला सा है,
पिघलती जा रही है मोम की तरह ज़िन्दगी,
इंतज़ार इक थके हुए अपाहिज कारवां सा है,
इक बर्फ़ की नदी, अपनी जगह है ठहरी हुई,
जिस्म के अंदरूनी इक कांटेदार ज़िंदां सा है,
आँखों से ओझल रहे सभी जज़्बात के उड़ान,
हाल ए दिल, परवाज़ भूला हुआ परिंदा सा है,
कब आई फ़स्ल ए बहार, कब खिले गुलशन,
मेरा वजूद, इक दूर दराज़ बसे बासिंदा सा है,
वक़्त के दायरे में, घूमते रहते हैं तमाशबीन,
मुहोब्बत का फ़लसफ़ा, इक अंधे कुआं सा है,
दूर तक, हद ए नज़र, बस धुआं - धुआं सा है,
* *
- - शांतनु सान्याल
क़रीब हैं फिर भी, दरमियानी फ़ासला सा है,
पिघलती जा रही है मोम की तरह ज़िन्दगी,
इंतज़ार इक थके हुए अपाहिज कारवां सा है,
इक बर्फ़ की नदी, अपनी जगह है ठहरी हुई,
जिस्म के अंदरूनी इक कांटेदार ज़िंदां सा है,
आँखों से ओझल रहे सभी जज़्बात के उड़ान,
हाल ए दिल, परवाज़ भूला हुआ परिंदा सा है,
कब आई फ़स्ल ए बहार, कब खिले गुलशन,
मेरा वजूद, इक दूर दराज़ बसे बासिंदा सा है,
वक़्त के दायरे में, घूमते रहते हैं तमाशबीन,
मुहोब्बत का फ़लसफ़ा, इक अंधे कुआं सा है,
दूर तक, हद ए नज़र, बस धुआं - धुआं सा है,
* *
- - शांतनु सान्याल
20 मार्च, 2023
हाकिम है लापता - -
बिखरी है लालिमा क्षितिज पार शाम हो रही है,
ज़िंदगी यूँ क़िस्तों में, धीरे धीरे तमाम हो रही है,
आधी रात को, सभी रास्ते रेगिस्तान हो जाएंगे,
गली कूचों में बेवजह शबनम बदनाम हो रही है,
इस महानगर के नीचे आबाद है, दूसरा शहर भी,
ज़मीं से फ़लक तक हर एक शै नीलाम हो रही है,
अजीब सी तृष्णा है सुलगते सीने के बहुत अंदर,
हाकिम है लापता राहज़नी सर ए आम हो रही है,
* *
- - शांतनु सान्याल
ज़िंदगी यूँ क़िस्तों में, धीरे धीरे तमाम हो रही है,
आधी रात को, सभी रास्ते रेगिस्तान हो जाएंगे,
गली कूचों में बेवजह शबनम बदनाम हो रही है,
इस महानगर के नीचे आबाद है, दूसरा शहर भी,
ज़मीं से फ़लक तक हर एक शै नीलाम हो रही है,
अजीब सी तृष्णा है सुलगते सीने के बहुत अंदर,
हाकिम है लापता राहज़नी सर ए आम हो रही है,
* *
- - शांतनु सान्याल
19 मार्च, 2023
भोर की आहट - -
तैराकी ज़रूरी है, सतरंगी मछलियों की तरह,
वरना डूब जाओगे, लापता कश्तियों की तरह,
जकड़ कर रखो, अपने प्रतिबिम्ब को हाथों से,
खो जाओगे कहीं, मूक प्रतिध्वनियों की तरह,
लोग उतार लेते हैं देह से इंद्रधनुषी शल्कों को,
गुप्त मन्त्र चाहिए, मायावी शक्तियों की तरह,
अपने आप ही तुम्हें छूना होगा भोर की आहट,
सतह तक पहुँचों, उजाले की सीढ़ियों की तरह,
परिधि के उस पार है कहीं मेघ विहीन आकाश,
प्रारंभ हो उत्क्रांति शैशव की ग़लतियों की तरह,
मीन पंखों से ले कर विहग के मुक्त उड़ान तक,
अंतहीन हैं स्वप्न उड़ती हुईं तितलियों की तरह,
* *
- - शांतनु सान्याल
वरना डूब जाओगे, लापता कश्तियों की तरह,
जकड़ कर रखो, अपने प्रतिबिम्ब को हाथों से,
खो जाओगे कहीं, मूक प्रतिध्वनियों की तरह,
लोग उतार लेते हैं देह से इंद्रधनुषी शल्कों को,
गुप्त मन्त्र चाहिए, मायावी शक्तियों की तरह,
अपने आप ही तुम्हें छूना होगा भोर की आहट,
सतह तक पहुँचों, उजाले की सीढ़ियों की तरह,
परिधि के उस पार है कहीं मेघ विहीन आकाश,
प्रारंभ हो उत्क्रांति शैशव की ग़लतियों की तरह,
मीन पंखों से ले कर विहग के मुक्त उड़ान तक,
अंतहीन हैं स्वप्न उड़ती हुईं तितलियों की तरह,
* *
- - शांतनु सान्याल
अंध दर्शकों के मध्य - -
पैतृक सीढ़ी के बग़ैर, छत पे चढ़ना आसान नहीं होता,
हर शख़्स के माथे पे, कुलीनता का निशान नहीं होता,
उस आदमी को चलना है ख़ुद के दम पे बहुत दूर तक,
हर किसी के नंगे पांव तले मख़मली ढलान नहीं होता,
अंदर का पौरुष कहता है कि, अन्याय का प्रतिवाद हो,
विद्रोहियों के माथे पर किंतु खुला आसमान नहीं होता,
धृतराष्ट्र की सभा में, अंध दर्शकों का होना लाज़िम है,
फिर भी अंधत्व का युग, हमेशा चलायमान नहीं होता,
सिंहासन का प्रभाव, बढ़ा जाता है दूर तक निस्तब्धता,
मौन सही, समय का दर्पण, लेकिन बेज़ुबान नहीं होता,
गिरना - संभलना तो हैं, ज़िन्दगी के दो सहजात पहलू,
दोहन नहीं थमेगा जब तक आदमी सावधान नहीं होता,
* *
- - शांतनु सान्याल
18 मार्च, 2023
मर्क़ज़ ए जां - -
एक नुक़्ता है ज़िन्दगी, छू लो तुम तो दायरा बन जाए,
तिलिस्म ए अल्फ़ाज़ से निकल कर, मुहावरा बन जाए,
मर्क़ज़ ए जीस्त हो, मुतालबा है आस्मां से कहीं ज़्यादा,
न खिंचिए क़रीब इतना कि वजूद उथला किनारा बन जाए,
चाँदनी रात का नशा है, तुम्हारे निगाह में मेरी मुहोब्बत,
रात ढलते ही न कहीं, ये टूटा हुआ इक सितारा बन जाए,
उभरते हैं मेरी आँखों में, अक्सर स्याह अब्र के गहरे साए,
छू लो अपनी पलकों से, कि जी उठने का सहारा बन जाए,
इक ही ज़ीस्त में न जाने, कितनी सज़ाओं की है गुंजाईश,
जिस्म ओ जां के रहते कहीं, दर्द ए आह बंजारा बन जाए,
* *
- - शांतनु सान्याल
17 मार्च, 2023
परदे के पीछे - -
सभी लोग यहाँ, उगते सूरज को सलाम करते हैं,
रंगीन पैरहन को देख सभी एहतिराम करते हैं,
उठ चुकी है मुद्दत हुई, दानिशवरों की महफ़िल,
अहमक़ ए मुल्क, जमीयत को ग़ुलाम करते हैं,
मुसनफ़ क्या शायर एक ही सिक्के के दो पहलू,
सभी ज़ेर ए चापलूसी तामीर ए कलाम करते हैं,
सजदे की निशानी, माथे पे लिए फिरते हैं लोग,
मुक़्क़दस पर्दों के पीछे सारे स्याह काम करते हैं,
संकरी गलियों की ज़िन्दगी, रहती है बेख़बर सी,
सभी महज़्ज़ब लोग इबादत सुबह शाम करते हैं,
* *
- - शांतनु सान्याल
रंगीन पैरहन को देख सभी एहतिराम करते हैं,
उठ चुकी है मुद्दत हुई, दानिशवरों की महफ़िल,
अहमक़ ए मुल्क, जमीयत को ग़ुलाम करते हैं,
मुसनफ़ क्या शायर एक ही सिक्के के दो पहलू,
सभी ज़ेर ए चापलूसी तामीर ए कलाम करते हैं,
सजदे की निशानी, माथे पे लिए फिरते हैं लोग,
मुक़्क़दस पर्दों के पीछे सारे स्याह काम करते हैं,
संकरी गलियों की ज़िन्दगी, रहती है बेख़बर सी,
सभी महज़्ज़ब लोग इबादत सुबह शाम करते हैं,
* *
- - शांतनु सान्याल
16 मार्च, 2023
सफ़रनामा - -
रिक्त है चाय की प्याली, चिपके हुए हैं कुछ
बिस्कुट के अवशोषित अंश, विलीन हो
चुकीं कब की चुस्कियां, अदृश्य
हैं ओठों के निशां, कब आँख
से छलकते हैं लवणीय
पानी, क्या कोई
बता सकता
है प्यार
की इंतहा ? समय के संग बहती चली जाती
हैं, सुदूर दिगंत की ओर कागज़ की
कश्तियाँ, चिपके हुए हैं कुछ
बिस्कुट के अवशोषित
अंश, विलीन हो
चुकीं कब की
चुस्कियां।
बता
सकता है क्या कोई, कितनी दूर जाने के बाद
रास्ता ख़ुद लिखे सफ़रनामा, गंत्वय
स्वयं ढूंढने आए मुसाफ़िर को,
ऐसा कुछ भी नहीं होता,
धीरे धीरे वक़्त भर
जाता है गहरे से
गहरे ज़ख्म
के तासीर
को, बस
सिरहाने पड़ी रहती हैं यादों की कुछ रंगीन सी
चिट्ठियां, रिक्त है चाय की प्याली, चिपके
हुए हैं कुछ बिस्कुट के अवशोषित अंश,
विलीन हो चुकीं कब की
चुस्कियां ।
* *
- - शांतनु सान्याल
बिस्कुट के अवशोषित अंश, विलीन हो
चुकीं कब की चुस्कियां, अदृश्य
हैं ओठों के निशां, कब आँख
से छलकते हैं लवणीय
पानी, क्या कोई
बता सकता
है प्यार
की इंतहा ? समय के संग बहती चली जाती
हैं, सुदूर दिगंत की ओर कागज़ की
कश्तियाँ, चिपके हुए हैं कुछ
बिस्कुट के अवशोषित
अंश, विलीन हो
चुकीं कब की
चुस्कियां।
बता
सकता है क्या कोई, कितनी दूर जाने के बाद
रास्ता ख़ुद लिखे सफ़रनामा, गंत्वय
स्वयं ढूंढने आए मुसाफ़िर को,
ऐसा कुछ भी नहीं होता,
धीरे धीरे वक़्त भर
जाता है गहरे से
गहरे ज़ख्म
के तासीर
को, बस
सिरहाने पड़ी रहती हैं यादों की कुछ रंगीन सी
चिट्ठियां, रिक्त है चाय की प्याली, चिपके
हुए हैं कुछ बिस्कुट के अवशोषित अंश,
विलीन हो चुकीं कब की
चुस्कियां ।
* *
- - शांतनु सान्याल
15 मार्च, 2023
आतिश रंगी उजाला - -
बेनूर आँखों को है, आतिश रंगी उजाले का इंतज़ार,
जेब रहे ख़ाली तो रंज न करें, ख़्वाब ख़रीदेंगे उधार,
चाँद उतरता है नीम् शब, ज़र्द खिड़की के आसपास,
फ़रेब ए अब्र में ज़िंदगी ढूंढती है ख़ामोश सा किनार,
यूँ निगाहों से गुज़र कर, रूह तलक उतरना तुम्हारा,
बियाबां की ख़ुश्क दुनिया में बहती हो गोया जलधार,
एक दिलकश एहसास, जो उमर बढ़ा जाए सुबह तक,
शमा बुझ चुकी, उठने को है, आसमानी मीना बाज़ार,
इक बंद लिफ़ाफ़ा है ज़िन्दगी, ख़ुश्बुओं से भीगी हुई,
खोलने की ज़रूरत है, बिखरने को हैं जज़्बात बेशुमार,
* *
- - शांतनु सान्याल
जेब रहे ख़ाली तो रंज न करें, ख़्वाब ख़रीदेंगे उधार,
चाँद उतरता है नीम् शब, ज़र्द खिड़की के आसपास,
फ़रेब ए अब्र में ज़िंदगी ढूंढती है ख़ामोश सा किनार,
यूँ निगाहों से गुज़र कर, रूह तलक उतरना तुम्हारा,
बियाबां की ख़ुश्क दुनिया में बहती हो गोया जलधार,
एक दिलकश एहसास, जो उमर बढ़ा जाए सुबह तक,
शमा बुझ चुकी, उठने को है, आसमानी मीना बाज़ार,
इक बंद लिफ़ाफ़ा है ज़िन्दगी, ख़ुश्बुओं से भीगी हुई,
खोलने की ज़रूरत है, बिखरने को हैं जज़्बात बेशुमार,
* *
- - शांतनु सान्याल
14 मार्च, 2023
परिपूरक समीकरण - -
शताब्दियों से प्रवाहित हैं दो प्रणयी स्रोत,
कभी समानांतर, कभी व्युत्क्रम धारा,
मिलन बिंदु में कभी उभरे रेत के
द्वीप, अंतर्लीन है कभी
मुक्ता अभ्यंतरीण
जीवंत सीप,
नेह सेतु
के अनुबंध ले जाएं कभी अंतरिक्ष के उस
पार, कभी आत्मिक विघटन खोजे
पृथ्वी का अंतिम किनारा,
शताब्दियों से प्रवाहित
हैं दो प्रणयी स्रोत,
कभी समानांतर,
कभी व्युत्क्रम
धारा।
कभी देह बने अस्थिर नौका, अदृश्य हाथ
थामे सांसों के पतवार, कभी आलिंगन
मुक्त जीवन, कभी चुंबकीय प्रेम की
बौछार, मेघ की परछाइयों में
कभी उभरे अनंत प्रेम का
उपहार, दो देहों के
मध्य रहता है
एक अदृश्य
परिपूरक
समीकरण, इस में ही समाहित है सृष्टि
का सारांश सारा, शताब्दियों से
प्रवाहित हैं दो प्रणयी स्रोत,
कभी समानांतर, कभी
व्युत्क्रम धारा।
* *
- - शांतनु सान्याल
कभी समानांतर, कभी व्युत्क्रम धारा,
मिलन बिंदु में कभी उभरे रेत के
द्वीप, अंतर्लीन है कभी
मुक्ता अभ्यंतरीण
जीवंत सीप,
नेह सेतु
के अनुबंध ले जाएं कभी अंतरिक्ष के उस
पार, कभी आत्मिक विघटन खोजे
पृथ्वी का अंतिम किनारा,
शताब्दियों से प्रवाहित
हैं दो प्रणयी स्रोत,
कभी समानांतर,
कभी व्युत्क्रम
धारा।
कभी देह बने अस्थिर नौका, अदृश्य हाथ
थामे सांसों के पतवार, कभी आलिंगन
मुक्त जीवन, कभी चुंबकीय प्रेम की
बौछार, मेघ की परछाइयों में
कभी उभरे अनंत प्रेम का
उपहार, दो देहों के
मध्य रहता है
एक अदृश्य
परिपूरक
समीकरण, इस में ही समाहित है सृष्टि
का सारांश सारा, शताब्दियों से
प्रवाहित हैं दो प्रणयी स्रोत,
कभी समानांतर, कभी
व्युत्क्रम धारा।
* *
- - शांतनु सान्याल
13 मार्च, 2023
रतजगा पाखी - -
कोहरे में ढकी रहती है सदा जीवन की परिभाषा,
कभी रहस्यमय चक्र सी, कभी महज सरल रेखा,
सफ़र में आते हैं, असंख्य यति चिन्हों के स्टेशन,
पल भर का मेल बंधन अंतिम गंत्वय है अनदेखा,
बूढ़े वट की शाख़ों में है पक्षियों का सांझ समागम,
कभी मीठा कभी बेसुरा, सकल जीवन एक सरीखा,
प्रथम अक्षर से आरंभ, पूर्ण विराम तक निरंतरता,
स्मित अधर नीर भरे नैन जीने का है यही सलीक़ा,
शून्य हो कर भी आकाश समेटे आलोकमय दुनिया,
मुक्त सीना हो सदा, हम ने ताउम्र बस इतना सीखा,
कोई ख़ुश है सिमित चाह से, कोई उम्र भर रतजगा,
राजा हो या रंक हर एक का है अपना अलग तरीक़ा,
* *
- - शांतनु सान्याल
कभी रहस्यमय चक्र सी, कभी महज सरल रेखा,
सफ़र में आते हैं, असंख्य यति चिन्हों के स्टेशन,
पल भर का मेल बंधन अंतिम गंत्वय है अनदेखा,
बूढ़े वट की शाख़ों में है पक्षियों का सांझ समागम,
कभी मीठा कभी बेसुरा, सकल जीवन एक सरीखा,
प्रथम अक्षर से आरंभ, पूर्ण विराम तक निरंतरता,
स्मित अधर नीर भरे नैन जीने का है यही सलीक़ा,
शून्य हो कर भी आकाश समेटे आलोकमय दुनिया,
मुक्त सीना हो सदा, हम ने ताउम्र बस इतना सीखा,
कोई ख़ुश है सिमित चाह से, कोई उम्र भर रतजगा,
राजा हो या रंक हर एक का है अपना अलग तरीक़ा,
* *
- - शांतनु सान्याल
11 मार्च, 2023
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता - -
बारम्बार, आ कर लौटा हूँ मैं आख़री पहर से,
पूछा है, मंज़िल का पता, लौटती हुई लहर से,
सीने के बीच से, निकलती है दरिया ए नफ़स,
गुज़रा हूँ मैं कई बार, सुलगते हुए राहगुज़र से,
बहते बहते खो चुका हूँ, मैं रफ़्तार ए ज़िन्दगी,
मुहाने पे आ कर, कोई शिकवा नहीं समंदर से,
कुछ भी हासिल नहीं, इन ख़्वाबों के बाज़ार से,
ख़ामोश सी सदा उभरती है, जिस्म के अंदर से,
रौशन वरक़ में बिकते हैं, सभी मिलावटी रिश्ते,
दुआ सलाम होता है, बस इक सरसरी नज़र से,
न जाने कहाँ खो से गए, वो एहसास ए आतफ़ी,
बेख़बर से हैं सभी लोग जीने मरने की ख़बर से।
* *
- - शांतनु सान्याल
पूछा है, मंज़िल का पता, लौटती हुई लहर से,
सीने के बीच से, निकलती है दरिया ए नफ़स,
गुज़रा हूँ मैं कई बार, सुलगते हुए राहगुज़र से,
बहते बहते खो चुका हूँ, मैं रफ़्तार ए ज़िन्दगी,
मुहाने पे आ कर, कोई शिकवा नहीं समंदर से,
कुछ भी हासिल नहीं, इन ख़्वाबों के बाज़ार से,
ख़ामोश सी सदा उभरती है, जिस्म के अंदर से,
रौशन वरक़ में बिकते हैं, सभी मिलावटी रिश्ते,
दुआ सलाम होता है, बस इक सरसरी नज़र से,
न जाने कहाँ खो से गए, वो एहसास ए आतफ़ी,
बेख़बर से हैं सभी लोग जीने मरने की ख़बर से।
* *
- - शांतनु सान्याल
10 मार्च, 2023
पोशीदा हाथ - -
बर ख़िलाफ़ ख्वाहिश, ज़िन्दगी बदल देते हैं हालात,
अभी अभी थी तेज़ धूप, अब है बेमौसम की बरसात,
इक वक़्त ऐसा था, कि हद ए नज़र सिर्फ़ पैरोकार थे,
अब पीछे लौट कर देखता हूँ, तो कोई नहीं मेरे साथ,
साया की तरह, अहद ए वफ़ा की दुहाई रहने दीजिए,
उम्रभर का साथी कोई नहीं, ये सब कहने की है बात,
न जाने कहाँ कहाँ लोग जाते हैं, गुनाह धोने के लिए,
अक्स है धुंधला, मुमकिन नहीं शीशे से पाना निजात,
इक पोशीदा वजूद के हाथ हैं तेरे गर्दन में भी हाकिम,
भलाई इसी में है कि छोड़ दे किसी बेगुनाह का हाथ ।
* *
- - शांतनु सान्याल
अभी अभी थी तेज़ धूप, अब है बेमौसम की बरसात,
इक वक़्त ऐसा था, कि हद ए नज़र सिर्फ़ पैरोकार थे,
अब पीछे लौट कर देखता हूँ, तो कोई नहीं मेरे साथ,
साया की तरह, अहद ए वफ़ा की दुहाई रहने दीजिए,
उम्रभर का साथी कोई नहीं, ये सब कहने की है बात,
न जाने कहाँ कहाँ लोग जाते हैं, गुनाह धोने के लिए,
अक्स है धुंधला, मुमकिन नहीं शीशे से पाना निजात,
इक पोशीदा वजूद के हाथ हैं तेरे गर्दन में भी हाकिम,
भलाई इसी में है कि छोड़ दे किसी बेगुनाह का हाथ ।
* *
- - शांतनु सान्याल
नव रूपांतरण - -
तल विहीन गहनता में कहीं रहता है वो विरल मोती,
किसी नक्षत्र पुञ्ज की तरह जो है अंतरतम में
प्रतिबिंबित, कोहरे में ढकी हुई हैं पुरातन
सीढ़ियां, शैवाल के हरित चादर से
लिपटी रहती हैं डूबी हुईं सभी
अनुभूतियाँ, निःश्वास
के बुलबुलों से उठ
कर जागता है
अचेत सा
प्रणय
देवता, जल छवि की तरह उभरती हैं हृदय कैनवास
में असंख्य प्रेमाकृतियाँ, तरंगित भावनाओं में
उठते हैं अनगिनत अभिलाष, गहन से
गहनतम की ओर खींचे लिए जाता
है कोई, नींद से जाग उठती
हैं सदियों से शिथिल
पड़ी खामोशियाँ,
जल रंगों में
नाचते हैं
प्रति -
दीप्ती के असंख्य कण, मोती के स्पर्श से पुनर्जीवित
हो जाती हैं मृतप्राय रक्त धमनियां, कोहरे में
ढकी हुई हैं पुरातन सीढ़ियां, शैवाल के
हरित चादर से लिपटी रहती
हैं डूबी हुईं सभी
अनुभूतियाँ ।
* *
- - शांतनु सान्याल
किसी नक्षत्र पुञ्ज की तरह जो है अंतरतम में
प्रतिबिंबित, कोहरे में ढकी हुई हैं पुरातन
सीढ़ियां, शैवाल के हरित चादर से
लिपटी रहती हैं डूबी हुईं सभी
अनुभूतियाँ, निःश्वास
के बुलबुलों से उठ
कर जागता है
अचेत सा
प्रणय
देवता, जल छवि की तरह उभरती हैं हृदय कैनवास
में असंख्य प्रेमाकृतियाँ, तरंगित भावनाओं में
उठते हैं अनगिनत अभिलाष, गहन से
गहनतम की ओर खींचे लिए जाता
है कोई, नींद से जाग उठती
हैं सदियों से शिथिल
पड़ी खामोशियाँ,
जल रंगों में
नाचते हैं
प्रति -
दीप्ती के असंख्य कण, मोती के स्पर्श से पुनर्जीवित
हो जाती हैं मृतप्राय रक्त धमनियां, कोहरे में
ढकी हुई हैं पुरातन सीढ़ियां, शैवाल के
हरित चादर से लिपटी रहती
हैं डूबी हुईं सभी
अनुभूतियाँ ।
* *
- - शांतनु सान्याल
09 मार्च, 2023
पड़ौसी इंसान - -
रूह ठहरा ख़ानाबदोश, कभी आबाद न होगा,
दायरा ए इश्क़ से ख़ुद, कभी आज़ाद न होगा,
हज़ार बार उड़ें वादियों में, तितलियों के साथ,
बेइंतहा चाहनेवाला, कोई भी मेरे बाद न होगा,
किसी अपाहिज का हाथ कभी थाम के देखिए,
इस से बेहतरीन पेश ए ख़ुदा फ़रियाद न होगा,
जो ताउम्र काफ़िर ओ मोमिन तलक रहे उलझे,
पड़ौसी इंसान का नाम, उसे कभी याद न होगा,
शख़्स जो बांटे दान मज़हब की रौशनी देख कर,
उस से बढ़ कर दुनिया में कोई जल्लाद न होगा,
* *
- - शांतनु सान्याल
दायरा ए इश्क़ से ख़ुद, कभी आज़ाद न होगा,
हज़ार बार उड़ें वादियों में, तितलियों के साथ,
बेइंतहा चाहनेवाला, कोई भी मेरे बाद न होगा,
किसी अपाहिज का हाथ कभी थाम के देखिए,
इस से बेहतरीन पेश ए ख़ुदा फ़रियाद न होगा,
जो ताउम्र काफ़िर ओ मोमिन तलक रहे उलझे,
पड़ौसी इंसान का नाम, उसे कभी याद न होगा,
शख़्स जो बांटे दान मज़हब की रौशनी देख कर,
उस से बढ़ कर दुनिया में कोई जल्लाद न होगा,
* *
- - शांतनु सान्याल
08 मार्च, 2023
रंगभरी स्पृहा - -
रंगीन देह की थी अपनी अलग सीमाएं,
कोलाहल थमते ही लहरों ने किया
आत्म समर्पण, वक़्त के संग
उतर जाएंगे सभी कृत्रिम
रंग, रह जाएंगे सिर्फ
अदृश्य स्पर्श के
चिन्ह, तीन
खण्डों
में
है विभाजित ये जीवन, धूप, शिखा और
धुआं, विलुप्त प्रतिबिम्ब को खोजता
प्रणयी दर्पण, रंगीन देह की थी
अपनी अलग सीमाएं,
कोलाहल थमते
ही लहरों ने
किया
आत्म समर्पण । निःस्तब्ध सा है मुख्य
द्वार का सांकल, दस्तकों का हो
चुका समापन, मुहाने पर आ
हो जाती है विश्रृंखल नदी
भी परिश्रांत, हृदय वेग
है मंथर,पलकों पर
ठहरे हुए हैं कुछ
ओस कण,
उष्मित
अधरों पर हैं जागृत कुछ अनबुझ तृष्णा,
अंतरतम में है एक प्रदेश अशांत, फिर
भी विनिमय विधि रूकती नहीं,
हर एक का है अपना ही
तक़ाज़ा, हर एक की
अपनी उगाही,
मुश्किल है
हिय का
तर्पण,
रंगीन देह की थी अपनी अलग सीमाएं,
कोलाहल थमते ही लहरों ने किया
आत्म समर्पण ।
* *
- - शांतनु सान्याल
कोलाहल थमते ही लहरों ने किया
आत्म समर्पण, वक़्त के संग
उतर जाएंगे सभी कृत्रिम
रंग, रह जाएंगे सिर्फ
अदृश्य स्पर्श के
चिन्ह, तीन
खण्डों
में
है विभाजित ये जीवन, धूप, शिखा और
धुआं, विलुप्त प्रतिबिम्ब को खोजता
प्रणयी दर्पण, रंगीन देह की थी
अपनी अलग सीमाएं,
कोलाहल थमते
ही लहरों ने
किया
आत्म समर्पण । निःस्तब्ध सा है मुख्य
द्वार का सांकल, दस्तकों का हो
चुका समापन, मुहाने पर आ
हो जाती है विश्रृंखल नदी
भी परिश्रांत, हृदय वेग
है मंथर,पलकों पर
ठहरे हुए हैं कुछ
ओस कण,
उष्मित
अधरों पर हैं जागृत कुछ अनबुझ तृष्णा,
अंतरतम में है एक प्रदेश अशांत, फिर
भी विनिमय विधि रूकती नहीं,
हर एक का है अपना ही
तक़ाज़ा, हर एक की
अपनी उगाही,
मुश्किल है
हिय का
तर्पण,
रंगीन देह की थी अपनी अलग सीमाएं,
कोलाहल थमते ही लहरों ने किया
आत्म समर्पण ।
* *
- - शांतनु सान्याल
06 मार्च, 2023
वादी ए गुल का पयाम - -
ख़ामोश दरवेश की तरह अपनी आंखों में दुआ रखिए,
नीले आसमां की तरह, दिल का दरवाज़ा खुला रखिए,
बढ़ती दूरियों के साथ वाबस्तगी भी धुंधले हो जाते हैं,
दिल न सही यूँ ही, हाथ मिलाने का सिलसिला रखिए,
फ़सल ए बहार की है मजलिस बिखरे ज़रा रंग ए जुनूं,
ज़िन्दगी है मुख़्तसर, दिल में मुहोब्बत बेइंतहा रखिए,
आइने को न रहे कोई अफ़सोस, ख़ुद को यूँ संवारा करें,
मुहब्बत के ख़त में वादी ए गुल का इक हासिया रखिए,
कच्चे रंगों का यक़ीन है बेमानी जाने कब ये उतर जाए,
राहत ए जां महसूस हो, यूँ मीठी लफ़्ज़ों की दवा रखिए,
* *
- - शांतनु सान्याल
नीले आसमां की तरह, दिल का दरवाज़ा खुला रखिए,
बढ़ती दूरियों के साथ वाबस्तगी भी धुंधले हो जाते हैं,
दिल न सही यूँ ही, हाथ मिलाने का सिलसिला रखिए,
फ़सल ए बहार की है मजलिस बिखरे ज़रा रंग ए जुनूं,
ज़िन्दगी है मुख़्तसर, दिल में मुहोब्बत बेइंतहा रखिए,
आइने को न रहे कोई अफ़सोस, ख़ुद को यूँ संवारा करें,
मुहब्बत के ख़त में वादी ए गुल का इक हासिया रखिए,
कच्चे रंगों का यक़ीन है बेमानी जाने कब ये उतर जाए,
राहत ए जां महसूस हो, यूँ मीठी लफ़्ज़ों की दवा रखिए,
* *
- - शांतनु सान्याल
04 मार्च, 2023
कुछ रंग आपस में बांटे - -
दरख़्तों के वसीयत में, परछाइयां शामिल नहीं होती,
दरिया दिलवालों की, अपनी कोई मंज़िल नहीं होती,
हज़ारों ग़म हैं ज़िन्दगी में, फिर भी मुस्कुराना न भूलें,
कांटों में खिलनेवालों की ख़ुसूसी महफ़िल नहीं होती,
मदहोश है ज़माना, कुछ रंग गुलाल और उड़ाए जाएं,
ख़ुद में सिमटने से, दिल की ख़ुशी हासिल नहीं होती,
दस्तकों से पहले दहलीज़ से बाहर क़दम बढ़ाए जाएं,
क़रीब तो आएं भाईचारगी इतनी मुश्किल नहीं होती,
दायरा ए इश्क़ की सरहद, कहीं कायनात से है वसीह,
जहां की सारी जायदाद, इश्क़ के मुक़ाबिल नहीं होती,
* *
- - शांतनु सान्याल
दरिया दिलवालों की, अपनी कोई मंज़िल नहीं होती,
हज़ारों ग़म हैं ज़िन्दगी में, फिर भी मुस्कुराना न भूलें,
कांटों में खिलनेवालों की ख़ुसूसी महफ़िल नहीं होती,
मदहोश है ज़माना, कुछ रंग गुलाल और उड़ाए जाएं,
ख़ुद में सिमटने से, दिल की ख़ुशी हासिल नहीं होती,
दस्तकों से पहले दहलीज़ से बाहर क़दम बढ़ाए जाएं,
क़रीब तो आएं भाईचारगी इतनी मुश्किल नहीं होती,
दायरा ए इश्क़ की सरहद, कहीं कायनात से है वसीह,
जहां की सारी जायदाद, इश्क़ के मुक़ाबिल नहीं होती,
* *
- - शांतनु सान्याल
03 मार्च, 2023
जन्म जड़ - -
अक्षय वट है जिजीविषा, जन्म जड़ कभी
अपनी भूमि छोड़ती नहीं, कटी हुई
टहनियों के बीच, मृत प्रेम जी
उठते हैं कोमल पत्तियों
की तरह, निःशब्द
हवाओं के संग
वो बतियाते
हैं रात
भर,
ठूंठ भी अपने सीने में रखता है अंकुर से
वृक्ष बनने तक का इतिहास । चाहे
जितनी बार, समय के स्लेट
से जीवन के वर्णमाला
पोंछ दिए जाएं, एक
हल्का सा चिन्ह
हर एक बार
छूट ही
जाता है, स्मृतियां, मृत नदी की तरह हर
हाल में भूमिगत जल का स्रोत खोज
लेती हैं, फिर उभर आते हैं मिटे
हुए अक्षर, अंकुरित होते
हैं गहरे दफ़न से
जल बिंदु,
पुनः
खिलते हैं दूर दूर तक रक्तिम पलाश, ठूंठ
भी अपने सीने में रखता है अंकुर से
वृक्ष बनने तक का
इतिहास ।
* *
- - शांतनु सान्याल
अपनी भूमि छोड़ती नहीं, कटी हुई
टहनियों के बीच, मृत प्रेम जी
उठते हैं कोमल पत्तियों
की तरह, निःशब्द
हवाओं के संग
वो बतियाते
हैं रात
भर,
ठूंठ भी अपने सीने में रखता है अंकुर से
वृक्ष बनने तक का इतिहास । चाहे
जितनी बार, समय के स्लेट
से जीवन के वर्णमाला
पोंछ दिए जाएं, एक
हल्का सा चिन्ह
हर एक बार
छूट ही
जाता है, स्मृतियां, मृत नदी की तरह हर
हाल में भूमिगत जल का स्रोत खोज
लेती हैं, फिर उभर आते हैं मिटे
हुए अक्षर, अंकुरित होते
हैं गहरे दफ़न से
जल बिंदु,
पुनः
खिलते हैं दूर दूर तक रक्तिम पलाश, ठूंठ
भी अपने सीने में रखता है अंकुर से
वृक्ष बनने तक का
इतिहास ।
* *
- - शांतनु सान्याल
01 मार्च, 2023
रंगीन पर्दों के पीछे - -
घूमते आईने सी है ये ज़िंदगी, अक्स बदलते रहे,
मुड़ के देखना था बेमानी, अकेले ही चलते रहे,
अनसुने से रहे फ़रियाद, नाबीनों की अदालत में,
बेज़ुबान बन कर वक़्त के संग हम भी ढलते रहे,
कोई बर्फ़ का दरिया ही तो है, चेहरे की मुस्कान,
ये दीगर बात है, कि अंदर ही अंदर पिघलते रहे,
साथ रह कर भी रहे हम एक दूसरे से नावाक़िफ़,
मौक़ा मिलते ही संकरी गली से दूर निकलते रहे,
इश्क़ ए मंज़िल का पता रूह को भी मालूम नहीं,
सफ़र में मुसलसल लोग मिले और बिछुड़ते रहे,
हर एक मरहले पे थे, मुख़्तलिफ़ चेहरों की भीड़,
वक़्त के साथ रंगीन पर्दे, अपने आप सरकते रहे,
* *
- - शांतनु सान्याल
मुड़ के देखना था बेमानी, अकेले ही चलते रहे,
अनसुने से रहे फ़रियाद, नाबीनों की अदालत में,
बेज़ुबान बन कर वक़्त के संग हम भी ढलते रहे,
कोई बर्फ़ का दरिया ही तो है, चेहरे की मुस्कान,
ये दीगर बात है, कि अंदर ही अंदर पिघलते रहे,
साथ रह कर भी रहे हम एक दूसरे से नावाक़िफ़,
मौक़ा मिलते ही संकरी गली से दूर निकलते रहे,
इश्क़ ए मंज़िल का पता रूह को भी मालूम नहीं,
सफ़र में मुसलसल लोग मिले और बिछुड़ते रहे,
हर एक मरहले पे थे, मुख़्तलिफ़ चेहरों की भीड़,
वक़्त के साथ रंगीन पर्दे, अपने आप सरकते रहे,
* *
- - शांतनु सान्याल
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