कुछ अलग से जीने की हसरत
लिए बैठा हूँ, ख़ाली हाथों
में एक बूंद मसर्रत
लिए बैठा हूँ,
अब मुड़
के
देखें तो किसे, हदे नज़र है अंधेरा,
सीने में कहीं उजालों के
जीनत लिए बैठा हूँ,
वक़्त बदल देता
है ज़िन्दगी
के सभी
नक़्शे,
उजड़े अल्बम का कोई वसीयत
लिए बैठा हूँ, न जाने कहाँ
गए शतरंज के वो
लाव लश्कर,
टूटे हुए
शीशों
का कोई सल्तनत लिए बैठा हूँ,
अहाते में हूँ एक मुश्त
गुनगुने धूप की
तरह, मालूम
नहीं
रास्ता, बस हिजरत लिए बैठा
हूँ, दूर तक है नीला समंदर,
खुला हुआ बंदरगाह,
उफ़क़ पोशीदा,
उड़ने की
नियत
लिए बैठा हूँ, कुछ अलग से - -
जीने की हसरत लिए
बैठा हूँ।
* *
- - शांतनु सान्याल
26 जनवरी, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
उस अदृश्य कुम्हार के दिल में, जाने क्या था फ़लसफ़ा, चाहतों के खिलौने टूटते रहे, सजाया उन्हें जितनी दफ़ा, वो दोपहर की - - धूप थी कोई मुंडेरों से...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
न जाने कहाँ
जवाब देंहटाएंगए शतरंज के वो
लाव लश्कर,
टूटे हुए
शीशों
का कोई सल्तनत लिए बैठा हूँ,..सुन्दर मनोभावों को व्यक्त करती बहुत सरस सारगर्भित रचना..गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें..जिज्ञासा सिंह..
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंवाह।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएं72वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (27-01-2021) को "गणतंत्रपर्व का हर्ष और विषाद" (चर्चा अंक-3959) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंखयालात की इंदधनुषी परवाज़
हटाएंऔर गहरा नीला हो गया आकाश
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंविसंगतियों के अंधेरे में आशा का एक दीप लिए बैठा हूं।
जवाब देंहटाएंशानदार /अप्रतिम।
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंवाह!गज़ब का सृजन।
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी
सादर
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएं